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तीर्थकर
तीथंकर की भाषा
तीर्थंकरों की अचेलता आदि के हेतु
मध्याह्न में लौटी। वह भूख-प्यास से क्लांत थी । काष्ठ १. असाधारण धृति
बहुत थोड़ा था, अतः वणिक ने उसे पीटा। वह बिना २. उत्तम संहनन
कुछ खाये पुनः काष्ठ लाने गई। लौटते समय काष्ठभार ३. चार ज्ञान सम्पन्नता
अधिक था। ज्येष्ठमास में मध्याह्न का समय था। उसके ४. अतिशय शक्ति
हाथ से एक काष्ठयष्टि गिर गई, जिसे उठाने हेतु वह ५. परीषह-विजय
नीचे झकी। उस समय उसे तीर्थंकर की देशना सुनाई फिर भी सवस्त्र तीर्थ का उपदेश देने के लिए तीर्थकर दी, वह झुकी हुई ही सुनती रही, उसे भूख-प्यास और एक वस्त्र को ग्रहण कर अभिनिष्क्रमण करते हैं। उसके गर्मी की अनुभूति ही नहीं हुई। गिर जाने पर वस्त्र का परित्याग कर अचेल हो जाते ८. तीर्थकर के उपदेश का हेतु हैं । वे निश्छिद्रपाणि होते हैं, अतः पात्र नहीं रखते।
तित्थयरो कि कारण भासइ सामाइयं तु अज्झयणं? वचनातिशय
तित्थयरणामगोत्तं कम्मं मे वेइयव्वंति ॥ सम्वत्थ अविसमत्तं रिद्धिविसेसो अकालहरणं च ।
(आवनि ७४२) सव्वण्णुपच्चओऽवि य अचितगुणभूतिओ जुगवं ।।
तीर्थकरनामगोत्र कर्म का वेदन करने के लिए
(आवनि ५७६) तीर्थकर सामायिक अध्ययन का निरूपण करते हैं। उनका तीर्थंकरों की वाणी से निम्नांकित अतिशेष प्रकट
यह वेदन अग्लान अश्रांत भाव से धर्मदेशना देने से होता होते हैं
अपरे हि केवलमवाप्यापि नैव धर्म देशयंति। तद्यथा ० सब प्राणियों के प्रति तुल्यता का भाव । ० ऋद्धि-विशेष-सबके संशय एक साथ विच्छिन्न ।
-प्रत्येकबुद्धा । तित्थकरो णियमा धम्म देसे ति। सेसा ० अकालहरण -संशयविच्छत्ति से पूर्व मृत्यु नहीं।
साधु भयणीया।
(उचू पृ १३०) • सर्वज्ञता की प्रतीति ।
तीर्थकर केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद नियमत: ० अचिन्त्य गुणसम्पदा ।
उपदेश देते हैं। साहारणासवत्ते तदुवओगो उ गाहगगिराए।
० केवली उपदेश देते भी हैं और नहीं भी देते । न य निग्विज्जइ सोया किढिवाणियदासिआहरणा ।। . प्रत्येक बुद्ध केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद उपदेश
एगस्स वाणियगस्स एगा किढीदासी। किढी थेरी। नहीं देते। सा गोसे कट्ठाणं गता। तहाछुहाकिलंता मज्झण्हे ६. तीर्थकर की भाषा आगता । अतिथोवा कट्ठा आणियत्ति पिट्टिता अजिमित
......"कहेइ साहारणेण सद्देणं । पीता पुणो पट्ठविता, सा य वड्डे कट्ठभारं गहाय ओगा
सव्वेसिं सगीणं जोयणणीहारिणा भगवं ॥ हंतीए पोरुसीए आगच्छति । जेट्ठामूलमासो। अह ताए
.."सव्वेसिपि सभासा जिणभासा परिणमे एवं ।। थेरीए कट्ठभाराओ एणं कठै पडितं, ताहे ताए थेरीए ओणमित्ता तं कळं गहितं । तं समयं च भगवं तित्थगरो
साहारणेणं सद्देणं अद्धमागहाए भासाए, सावि य णं धम्म पकहितो जोयणणीहारिणा सरेणं, सा थेरी तं सदं।
अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणी सव्वेसि तेसि आरियसुणेति तहेव ओणता सोउमाढत्ता, उण्हं तण्हं छुहं परिस्समं मणारियाण अप्पप्पणा भार
मणारियाणं अप्पप्पणो भासापरिणामेणं परिणमति । च ण विंदति । (आवनि ५७८, चू १ पृ ३३१,३३२)
(आवनि ५६६,५७७, चू १ पृ ३२९) अर्हतों की वाणी सर्वजनग्राह्य, अनुपम और सब दुःखों
तीर्थंकर साधारण शब्दों के माध्यम से अर्धमागधी से त्राण देने वाली होती है। उस अद्वितीय अनुपम वाणी भाषा में उपदेश देते हैं । देव, मनुष्य, तिर्यंच-सब संज्ञी को सुनने वाला कभी खेदखिन्न नहीं होता। यहां वणिग्- प्राणी उन शब्दों को समझ लेते हैं अर्थात् वे शब्द आर्यदासी का उदाहरण मननीय है
अनार्य सबकी अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाते एक वृद्ध दासी प्रातः काष्ठ लाने के लिए जंगल में गई, हैं । वे शब्द एक योजन तक सुनाई देते हैं ।
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