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तीर्थंकरों के अतिशय
तीर्थकर
सब्वेवि एगदसेण निग्गया जिणवरा चउव्वीसं । होती है... न य नाम अण्णलिंगे नो गिहिलिंगे कुलिंगे वा॥ १. गणधर
८. व्यन्तर (आवनि २२७) २. आहारकशरीरी
९. चक्रवर्ती सभी तीर्थंकर अभिनिष्क्रमणकाल में एक दूष्य ३. अनुत्तर वैमानिक देव १०. वासुदेव (वस्त्र) रखते हैं। वे तीर्थकर-लिंग में निष्क्रमण करते हैं, ४. नव प्रैवेयक देव ११. बलदेव अन्यलिंग, गृहिलिंग या कुलिंग में नहीं।
५. अच्युत आदि बारह १२. माण्डलिक राजा ७. तीथंकरों के अतिशय
__ कल्पोपन्न देव
१३. राजा ६. भवनपति
१४. जन साधारण जन्मसम्बन्धी
७. ज्योतिष्क जायमाणेसु तित्थयरेसु सव्वलोए उज्जोओ भवति ।
भगवतो अणुत्तरं संघयणं "अणुत्तरं संठाणं अणुत्तरो तित्थयरमायरो य पच्छन्नगब्भाओ भवंति । जररुहिर
उक्सासनिस्सासगंधो""गोखीरपंडुरं मंसशोणितं । कलमलाणि य न भवति । (आवचू १ पृ १३५)
(आवचू १ पृ ३३०) तीर्थंकर के जन्म के समय सारे लोक में उद्योत
तीर्थंकर के संहनन और संस्थान अनुत्तर होते हैं। फैलता है । तीर्थंकर की माता प्रच्छन्न गर्भ वाली होती
उनके उच्छवासनिःश्वास सुरभि गंध वाले तथा मांस और है। गर्भ में जर, रुधिर आदि अशुद्धियां नहीं होती।
शोणित गोक्षीर के समान धवल होते हैं। आहारसंबंधी
बल ..."आहारमंगुलीए ठवंति देवा मणण्णं तु ॥
जं केसवस्स उ बलं, तं दुगुणं होइ चक्कवट्टिस्स । सव्वे तित्थगरा बालभावे जदा तण्हातिया छहातिया तत्तो बला बलवगा, अपरिमियबला जिणवरिंदा ।। वा भवंति तदा अप्पणो अंगुलियं वयणे पक्खिवंति, तत्थ
(आवनि ७५) देवा सव्वभक्खे परिणामयंति, एस बालभावे आहारो वासुदेव में बीस लाख अष्टापद का बल होता है, सव्वेसि। ण ते थणं धावति । पच्छा सिद्धमेव भुंजति चक्रवर्ती में उससे दुगुना-चालीस लाख अष्टापद का महतीभूता। उसभस्स पूण सव्वकालं देवोवणीतयाई बल होता है। तीर्थकर उनसे अधिक बल वाले, अपरिउत्तरकुरुफलाई जाव पव्वतितो।
मित बल वाले होते हैं। (आवनि १८९ चू १ पृ १५१,१५२)
आठ प्रातिहार्य तीर्थंकर स्तनपान नहीं करते। वे शैशवकाल में
अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिजब भूख-प्यास का अनुभव करते हैं, तब अपनी अंगुलि
दिव्यो ध्वनिश्चामरमासनं च । को मुंह में डालते हैं। देव उस अंगुलि में नाना रसों से भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, समायुक्त आहार का प्रक्षेप करते हैं। शिशुवय अतिक्रांत
सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ होने पर वे अग्नि में पका हुआ भोजन करते हैं। केवल
(नन्दीमव प ४१) अर्हत ऋषभ ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने प्रव्रज्या से पूर्व अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, देवों द्वारा आनीत उत्तरकुरु (एक अकर्मभूमि) के फलों भामण्डल, देवदुन्दुभि और छत्र-ये तीर्थंकरों के आठ का आहार किया।
प्रातिहार्य (चामत्कारिक अतिशय) हैं। उत्कृष्ट रूप सम्पदा
अचेलता आदि के हेतु गणहर आहार अणुत्तरा य जाव वण चक्कि वासु बला। निरुपमधिइसंघयणा चउनाणाइसयसत्तसंपण्णा। मण्डलिया ता हीणा छद्राणगया भवे सेसा ।। अच्छिद्दपाणिपत्ता जिणा जियपरिसहा सव्वे ॥
(आवनि ५७०) तहवि गहिएगवत्था सवत्थतित्थोवएसणत्थंवि । तीर्थंकर की रूपसम्पदा उत्कृष्ट होती है। उनकी अभिनिक्खमंति सव्वे तम्मि चुएऽचेलया हुंति ॥ अपेक्षा गणधर आदि की रूपसम्पदा क्रमशः अनन्तगुणहीन
(विभा २५८१,२५८३)
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