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तिर्यच
स्थलचर के प्रकार १. तियंच का निर्वचन, परिभाषा ........... पुवकोडीपुहत्तं, उक्कोसेण वियाहिया ।
तिरोऽञ्चन्तीति गच्छन्तीति तिर्यञ्चः, व्युत्पत्ति- कायट्टिई जलयराणं, अंतोमुहत्तं जहन्निया ॥ निमित्तं चैतत् । प्रवृत्तिनिमित्तं तु तिर्यग्गतिनाम, एते
अणंतकालमुक्कोस, अंतोमहत्तं जहन्नयं । . चैकेन्द्रियादयः । तत एषामायुस्तिर्यगायुर्येनैतेषु स्थिति- .
विजढंमि सए काए, जलयराणं तु अंतरं ।। .. भवति । (उशावृ प ६४३,६४४)
(उ ३६।१७५-१७७) तिर्यंच:-एकेन्द्रियादयः पञ्चेन्द्रियपर्यन्ताः द्रष्टव्याः। आयुस्थिति-जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः एक करोड़ (पिनिवृ प ३७)
पूर्व । जो तिरछी गति करते हैं, वे तिर्यञ्च हैं यह
= कायस्थिति-जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पृथक्त्व तिर्यञ्च का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है।
कोटि पूर्व (दो से नौ कोटि पूर्व)। जिन जीवों के तिर्यग गति नामकर्म का उदय होता अन्तरकाल-जघन्यतः अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्टतः अनन्त है, वे तिर्यञ्च हैं - यह प्रवृत्तिलभ्य अर्थ है। तिर्यञ्चायु
काल । कर्म के उदय से ये तिर्यञ्चगति का आयुष्य भोगते हैं। ४. स्थलचर के प्रकार तिर्यंच एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं।
चउप्पया य परिसप्पा, द्रविहा थलयरा भवे । २. पंचेन्द्रिय तिर्यंच के प्रकार
चउप्पया चउविहा, ते मे कित्तयओ सुण ।। पंचिदियतिरिक्खाओ, दुविहा ते वियाहिया ।।
एगखुरा दुखरा चेव, गंडीपयसणप्पया । सम्मुच्छिमतिरिक्खाओ, गब्भवक्कंतिया तहा।।
हयमाइगोणमाइ, गयमाइसीहमाइणो॥ दुविहावि ते भवे तिविहा, जलयरा-थलयरा नहा ।
(उ ३६।१७९,१८०)
स्थलचर जीव के दो प्रकार हैं-चतुष्पद और खहयरा य बोद्धव्वा ....." ।।
परिसर्प।
चतुष्पद के चार प्रकार हैंपंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव के दो प्रकार हैं-सम्मूच्छिम
१. एक खुर-घोड़े आदि । तियं च और गर्भज तियंच। ये दोनों ही जलचर, स्थल
२. दो खुर-बैल आदि । चर और खेचर के भेद से तीन-तीन प्रकार के हैं।
३. गंडीपद-हाथी आदि । ३. जलचर के प्रकार
४. सनखपद-सिंह आदि । मच्छा य कच्छभा य, गाहा य मगरा तहा ।
परिस सुंसुमारा य बोद्धव्वा, पंचहा जलयराहिया ।
भओरगपरिसप्पा य, परिसप्पा विहा भवे ।
(उ ३६११७२) जलचर जीव पांच प्रकार के हैं
गोहाइ अहिमाई य, एक्केक्का गहा भवे ॥ १. मत्स्य २. कच्छप ३. ग्राह
(उ ३६।१८१) ४. मकर ५. सुंसुमार।
परिसर्प के दो प्रकार हैं
१. भजपरिसर्प-हाथों के बल चलने वाले गोह आदि एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ ।
प्राणी। संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो।।
२. उर:परिसर्प-पेट के बल चलने वाले साप आदि प्राणी। (उ ३६।१७८)
ये दोनों अनेक प्रकार के होते हैं। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं।
एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासो ।
संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो।। आयुस्थिति-कायस्थिति-अंतरकाल
(उ ३६।१८७) एगा य पुवकोडीओ, उक्कोसेण वियाहिया ।
वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से आउट्टिई जलयराणं, अंतोमुहत्तं जहन्निया ॥ उनके हजारों भेद होते हैं। .
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