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तीर्थ के प्रकार
आयुस्थिति कार्यस्थिति- अंतरकाल
पलिओमाउ तिणि उ, उक्कोसेण वियाहिया । आउट्टिई थलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ पलिओमाउ तिणि उ, उक्कोसेण तु साहिया । पुव्वकोडी पुहत्तणं, अंतोमुहुत्तं जहनिया || कायट्टिई थलयराणं, अंतरं
सिमं भवे ।
कामतमुक्कसं,
अंत
आयुस्थिति — जघन्यतः पल्योपम ।
जहन्नयं ॥
( उ ३६।१८४ - १८६) अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः तीन
काय स्थिति-- जघन्यतः अन्तर्मुहूत्तं, उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम । अंतरकाल – जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अनंतकाल । ५. खेचर के प्रकार
चम् उ लोमक्खी य, तड़या समुग्गपक्खिया । farrurat बोद्धव्वा, पक्खिणो य चउव्विहा ||
चर्मपक्षिणः चर्मचटकाप्रभृतयः चर्मरूपा एव हि तेषां पक्षाः ... रोमप्रधानाः पक्षा रोमपक्षास्तद्वन्तः रोमपक्षिणःराजहंसादयः । समुद्गपक्षिणः समुद्गाकारपक्षवन्तः, च मानुषोत्तराद्वहिद्वीपवर्तिनः । विततपक्षिणः ये सर्वदा विस्तारिताभ्यामेव पक्षाभ्यामासते ।
( उ ३६।१८८ शावृप ६९९ ) खेचर जीवों के चार प्रकार हैं१. चर्मपक्षी चमगीदड़ आदि । २. रोमपक्षी - राजहंस आदि ।
३. समुद्गपक्षी - इनके पंख समुद्ग के आकार वाले होते हैं । ये मानुषोत्तर पर्वत के बाहरी द्वीपों में निवास करते हैं ।
४. विततपक्षी - इनके पंख सदा फैले हुए रहते हैं । एएसि वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो || (उ ३६।१९४)
वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं । आयुस्थिति काय स्थिति- अंतरकाल
पलिओवमस्स भागो, असंखेज्जइमो भवे । आउट्टिई खहयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ असंखभागो पलियस्स, उक्कोसेण उ साहिओ । goaकोडीपुहत्तेणं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥
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तीर्थ
अंतरं तेसिमं भवे । अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥ ( उ ३६।१९१-१९३) आयुस्थिति -- जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पत्योपम का असंख्यातवां भाग ।
कायट्टिई खहयराणं, कालं अनंतमुक्कोसं,
कायस्थिति - जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवां
भाग ।
अंतरकाल - जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्टतः अनंतकाल । तीर्थ - चतुविध श्रमण संघ । गणधर । प्रवचन | १. तीर्थ की परिभाषा
तित्थं चातुवण्णो समणसंघो पढमादिगणधरा वा । ( नन्दीचू पृ २६ ) तीर्थं यथावस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनम् । तच्च निराधारं न भवतीति कृत्वा संघः प्रथमगणधरो वा वेदितव्यम् ।
( नन्दीमवृप १३० ) जीव, अजीव आदि पदार्थ जिस रूप में अवस्थित हैं, उसी रूप में उनका प्ररूपण करने वाला प्रवचन तीर्थ है । वह प्रवचन तीर्थंकर द्वारा प्रणीत है। वह निराधार नहीं होता । उसका आधार है - साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुविध श्रमणसंघ अथवा गणधर । अतः संघ और प्रथम गणधर तीर्थ हैं ।
तित्थं ति पुव्वभणियं संघो जो नाणचरणसंघाओ । इह पत्रयणं पि तित्थं तत्तोऽणत्यंतरं जेण ॥ ( विभा १३८० ) संघ ज्ञान और चारित्र का संघात है। संघ को तीर्थ कहा गया है । प्रवचन और तीर्थ एकार्थक हैं । २. तीर्थ के प्रकार
तित्थं दुविहं - दव्वतित्थं च भावतित्थं च । प्रभासादीनि द्रव्यतीर्थानि जीवानामुपरोधकारीनीति कृत्वा न शान्तितीर्थानि भवन्ति । यस्तु आत्मनः परेषां च शान्तये तद्भावतीर्थं भवति । ब्रह्म एव शान्तितीर्थं ।
( उचू पृ २१२)
तीर्थ के दो प्रकार हैं
१. द्रव्यतीर्थ - प्रभास आदि। यहां जीवों का उपहनन होता है, अतः ये शांतितीर्थ नहीं हो सकते ।
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