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तप
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तिर्यंच
सदा विविध गुण वाले तप में रत रहने वाला मुनि क्रमशः सूख जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरुष के पापपोद्गलिक प्रतिफल की इच्छा से रहित होता है। वह कर्म के आने के मार्ग का निरोध होने से करोड़ों भवों के केवल निर्जरा का अर्थी होता है। वह तप के द्वारा पुराने संचित कर्म तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण हो जाते हैं। कर्मों का विनाश करता है और सदा तप:समाधि में युक्त एयं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी । रहता है।
से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिए । ७. तप की अर्हता
(उ ३०।३७) बलं थामं च पहाए, सद्धामारोगमप्पणो ।
जो पण्डित मुनि बाह्य और आभ्यंतर-दोनों प्रकार खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजंजए ।
के तपों का सम्यक रूप से आचरण करता है, वह शीघ्र
(द ८।३४) ही समस्त संसार से मुक्त हो जाता है। अपने बल, पराक्रम, श्रद्धा और आरोग्य को देखकर,
निःसङ्गता शरीरलाघवेन्द्रियविजयसंयमरक्षणादिगुणक्षेत्र और काल को जानकर अपनी जान मनमा योगात् शुभध्यानावस्थितस्य कर्मनिर्जरणम् । आत्मा को तप आदि में नियोजित करे।
(उशावृ प ६०८)
निःसंगता, शरीरलाघव, इन्द्रियविजय, संयमरक्षा, ८. तप के परिणाम
शुभध्यान, कर्मनिर्जरण-ये तप के परिणाम हैं । ''तवेणं वोदाणं जणयइ। (उ २९।२८) व्यवदानं पूर्वबद्धकर्मापगमतो विशिष्टां शुद्धिम् ।
तियंच-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा पशु, पक्षी _ (उशावृ प ५८६)
आदि पंचेन्द्रिय। वोदाणेणं अकिरियं जणयइ। अकिरियाए भवित्ता
१. तियंच का निर्वचन, परिभाषा तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्व
___ * एकेन्द्रिय तियंच
(प्र. जीवनिकाय) दुक्खाणमंतं करेइ।
(उ २९।२९) * विकलेन्द्रिय तियंच
(प्र. प्रस) तप से जीव व्यवदान को प्राप्त होता है। व्यवदान
२.पंचेन्द्रिय तियंच के प्रकार का अर्थ है-पूर्व बद्ध कर्मों के विलय से होने वाली विशिष्ट
३. जलचर के प्रकार शुद्धि।
• आयुस्थिति-कायस्थिति-अंतरकाल व्यवदान से जीव अक्रिया (मन, वचन और शरीर
४. स्थलचर के प्रकार की प्रवृत्ति के पूर्ण निरोध) को प्राप्त होता है । वह
• आयुस्थिति-कायस्थिति-अंतरकाल अक्रियावान् होकर सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त
५. खेचर के प्रकार होता है, परिनिर्वृत होता है और सब दुःखों का अन्त
• आयुस्थिति-कायस्थिति-अन्तरकाल करता है।
पञ्चेन्द्रिय तियंच मेंतवेण परिसुज्झई।
(उ २८।३५) अवधिज्ञान .
(द्र. अवधिज्ञान) जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे । * सम्यक्त्व
(द्र. सम्यक्त्व) उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥.
...आशीविष लग्धि ..
(द्र. लब्धि) एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे ।
+ लेश्या
(5. लेश्या) भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ॥
शरीर
(द्र. शरीर) (उ ३०१५,६) * अवगाहना का मापन
(द्र. अंगल) । तपस्या से आत्मा की विशुद्धि होती है।
आयुष्य का मापन
(F. काल) जिस प्रकार कोई बड़ा तालाब जल आने के मार्ग
अन्तर्वीपज तियंच.. का निरोध करने से, जल को उलीचने से, सूर्य के ताप से
(द्र. मनुष्य)
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