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ज्ञान
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ज्ञानसम्पन्नता के परिणाम
जो इन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं है, वह नोइन्द्रियप्रत्यक्ष है। मन के माध्यम से जो मति-श्रुतात्मक ज्ञान होता है, यहां नो शब्द सर्वथा निषेधवाचक है। मन भी किसी वह धूम से अग्निज्ञान की तरह परनिमित्तज होने के अपेक्षा से इन्द्रियरूप में स्वीकृत है इसलिए उसके माध्यम कारण परोक्ष है। से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता।
इन्दिय-मणोनिमित्तं परोक्खमिह ससयादिभावाओ । प्रकार
तक्कारणं परोक्खं जहेह साभासमणमाणं ।। नोइंदियपच्चक्खं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा- ओहि
(विभा ९३)
इन्द्रिय और मन के माध्यम से होने वाले ज्ञान में नाणपच्चक्खं, मणपज्जवनाणपच्चक्खं, केवलनाणपच्चक्खं ।
(नन्दी ६)
संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि हो सकते हैं, इसलिए नोइन्द्रियप्रत्यक्ष तीन प्रकार का है-१. अवधिज्ञान
वह परोक्ष है। जैसे साभास अनुमान या सम्यग् अनुमान प्रत्यक्ष, २. मनःपर्यवज्ञानप्रत्यक्ष ३. केवलज्ञानप्रत्यक्ष ।
को परोक्ष इसलिए माना है कि वह इन्द्रिय और मन(द्र. सम्बद्ध नाम)
सापेक्ष होता है त ग उसमें संशय आदि की संभावना बनी
रहती है। १०. परोक्षज्ञान की परिभाषा
होन्ति परोक्खाई मइ-सुयाइं जीवस्स परनिमित्ताओ। अक्खो जीवो। तस्स ज परतो तं परोक्खं ।
पुवोवलद्धसंबधसरणाओ वाणुमाणं व ॥ (आवचू १ पृ ६,७)
(विभा ९४) अक्खातो परेसु जं णाणं उप्पज्जति तं परोक्खं
जैसे पूर्व उपलब्ध संबंध की स्मृति के कारण उत्पन्न इंदियमणोनिमित्तं दट्ठव्वं । (नन्दीचू पृ १४) होने वाला अनुमान ज्ञान परोक्ष है, वैसे ही : ति और
अक्ष का अर्थ है-जीव । जो उससे पर होता है, वह श्रुत ज्ञान भी पर अर्थात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से परोक्ष है।
उत्पन्न होता है, इसलिए वह परोक्ष है। जो ज्ञान साक्षात् आत्मा से नहीं, 'पर' से होता है,
११. ज्ञान और नय वह परोक्ष है। यह इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने
सम्मत्त-नाणरहियस्स नाणमुप्पज्जइ त्ति ववहारो। वाला ज्ञान है।
नेच्छइयनओ भासइ उप्पज्जइ तेहिं सहिअस्स ।। प्रकार
(विभा ४१४) परोक्खं दुविह पण्णत्तं, तं जहा . आभिणिबोहिय
व्यवहारनय के अनुसार सम्यक्त्व और ज्ञान से नाणपरोक्खं च सुयनाणपरोक्खं च । (नन्दी ३४)
विहीन (मिथ्यात्वी और अज्ञानी) जीव को ज्ञान उत्पन्न परोक्ष ज्ञान दो प्रकार का है-१. आभिनिबोधिक- टोता है। निजात
होता है। निश्चयनय के अनुसार सम्यक्त्वी और ज्ञानी ज्ञानपरोक्ष २. श्रुतज्ञानपरोक्ष ।
को ही ज्ञान उत्पन्न होता है । परोक्षता का हेतु
१२. ज्ञान और सम्यक्त्व में भेद अक्खस्स पोग्गलकया जं दविवन्दिय-मणा परा तेणं ।
नाणमवाय-धिईओ सण मिटठं जहोग्गहे-हाओ। तेहिं तो जं नाणं परोक्खमिह तमणमाणं व ॥
तह तत्तरुई सम्मं रोइज्जइ जेण तं नाणं ।। अपोद्गलिकत्वादमूर्तो जीव । पौद्गलिकत्वात् तु
(विभा ५३६) मूर्तानि द्रव्येन्द्रियमनांसि । अमूर्ताच्च मूर्त पृथग्भूतम् ।
जैसे अवग्रह और ईहा सामान्य अवबोध के कारण ततस्तेभ्यः पौद्गलिकेन्द्रियमनोभ्यो यद् मति-श्रुत
दर्शन हैं और अपाय तथा धृति-धारणा विशेष अवबोध लक्षणं ज्ञानमुपजायते, तद् धूमादेरग्न्यादिज्ञानवत्
के कारण ज्ञान हैं, वैसे ही तत्त्वविषयक रुचि-श्रद्धा परनिमित्तत्वात् परोक्षमिह जिनमते परिभाष्यते ।
सम्यक्त्व है और जिससे जीव आदि तत्त्वों पर श्रद्धा (विभा ९० मवृ पृ ५०)
होती है, वह ज्ञान है। आत्मा अमूर्त है, क्योंकि अपौद्गलिक है। द्रव्यइन्द्रियां और मन मूर्त हैं, क्योंकि पुदगलों से निष्पन्न हैं। १३. ज्ञानसम्पन्नता के परिणाम अमूर्त से मूर्त 'पर' (पृथक्) है। अतः द्रव्येन्द्रियों और नाणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ?
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