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सामान्यबोध-दर्शन
२९३
ज्ञान
नाणसंपन्नयाए णं जीवे सव्वभावाहिगम जणयइ। विसुद्धतरं नाणमक्खरं, एवं कमेणं तेउ-वाउ-वणस्सतिनाणसपन्ने णं जीवे चाउरते संसारकंतारे न विणस्सइ । बेइंदिय-तेइंदिय-चतुरिदिय-असण्णिपंचेंदिय-सण्णिपंचेंदि
जहा सूई ससुत्ता पडिया वि न विणस्सइ । याण य विसुद्धतरं भवति । (नन्दीचू पृ ५६) तहा जीवे ससुत्ते संसारे न वि स्सइ ।।
___ सव्वजहणणं चित्तं एगिदियाणं, ततो विसुद्धतरं नाणविणयतवर्चा त्तजोगे संपाउणइ, ससमयपरसमय- बेइंदियाणं, ततो तेइंदियाणं, ततो चरिदियाणं, ततो संघायणिज्जे भवइ।
(उ २९।६०) असण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिताणं सम्मच्छिममणसाण य, भन्ते ! ज्ञान-सम्पन्नता (श्रुतज्ञान की सम्पन्नता) से ततो गब्भवतियतिरियाणं, ततो गब्भवक्कंतियमणूसाणं, जीव क्या प्राप्त करता है ?
ततो वाणमंतराणं, ततो भवणवासीणं, ततो जोतिसियाणं, ज्ञान-सम्पन्नता से वह सब पदार्थों को जान लता ततो सोधम्मताणं जाव सव्वक्कस्सं अणु त्तरोववातियाणं है । ज्ञान-सम्पन्न जीव चार गतिरूप चार अन्तों वाली देवाणं ।
(दअचू पृ ७४) अटवी में बिनष्ट नहीं होता। जिस प्रकार ससूत्र (धागे पृथ्वीकायिक जीवों में ज्ञान-चेतना का विकास
न्यूनतम होता है। उससे अनंत भाग विशुद्धतर ज्ञान प्रकार ससूत्र (श्रुतसहित) जीव संसार में रहने पर भी अपकायिक जीवों में होता है। इसी प्रकार तेजस्काय, विनष्ट नहीं होता।
वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति अवधि आदि विशिष्ट ज्ञान, विनय, असन्नी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सम्मूच्छिम मनुष्य, गर्भज तप और चारित्र के योगों को प्राप्त करता है तथा तिर्यच, गर्भज मनुष्य, व्यंतर देव, भवनपति देव, ज्योतिष्क स्वसमय और परसमय की व्याख्या या तुलना के लिए देव, सौधर्म आदि कल्पोपपन्न देव और नव अवेयक प्रामाणिक रुष माना जाता है।
देव-इनका ज्ञान क्रमशः विशुद्ध, विशुद्धतर होता है । ज्ञानस्य फलं हेयस्य हानि: उपादेयस्य चोपादानं,
अनुत्तरोपपातिक देवों में ज्ञानचेतना का विकास सर्वोत्कृष्ट न च संसारात्परं किञ्चिद्धे यमस्ति न च मोक्षात्परं
विशुद्धतम होता है। किञ्चिदुपादेयं, ततो भवमोक्षावेकान्तेन हेयोपादेयौ । भवमोक्षयोश्च हान्युपादाने सर्वसङ्गविरतेर्भवतः । ततः
१५. ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम सब जीवों में साऽवश्यं तत्त्ववेदिना कर्तव्या। सैव च परमार्थतो ज्ञानस्य णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स अणंतेहिं अविभागपलिफलम् ।
(नन्दीमव प १४३) च्छेदेहिं जतिवि एक्केक्को जीवपदेसो आवेढितो ज्ञान की निष्पत्ति है-हेय का त्याग और उपादेय परिवेढितो भवति तहावि णाणभावो अत्थि चेव पूढविका स्वीकार । संसार से बढ़कर कोई दूसरा हेय नहीं है काइयादीणं।
(आवचू १ पृ ३०) और मोक्ष से बढ़कर कोई दूसरा उपादेय नहीं है । इसलिए यद्यपि ज्ञानावरणीय कर्म के अनन्त अविभागी भव-संसार एकान्ततः हेय है और मोक्ष एकान्ततः परिच्छेदों से एक-एक आत्मप्रदेश आवेष्टित-परिवेष्टित उपादेय है। भव की हानि और मोक्ष के उपादान का है. फिर भी पृथ्वीकाय आदि जीवों में ज्ञान की सत्ता साधन है-सर्वसंग-विरति । ज्ञानी को विरति अवश्य (क्षयोपशम) तो विद्यमान है ही। करनी चाहिए । वस्तुतः ज्ञान का यही फल है।
१६. सामान्यबोध-दर्शन जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेणं ।।
..."निव्विसेसमणागारं। तं दंसणं"। (उशाव प ६८)
(विभा ७६४) एक अज्ञानी करोड़ों वर्षों में जितने कर्मों को क्षीण जो सामान्य का ग्राहक है, वह दर्शन/अनाकार उपकरता है, उतने कर्मों को एक त्रिगुप्त ज्ञानी उच्छवास योग है। मात्र में क्षीण कर देता है।
दर्शन के प्रकार १४. चेतना-विकास का क्रम
दंसणगुणप्पमाणे चउन्विहे पण्णत्ते, तं जहा- चक्खुपुढविकाइतेहितो आउक्कातियाण अणंतभागेण दंसणगुणप्पमाणे अचक्खुदंसणगुणप्पमाणे ओहिदसण
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