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जातिस्मृति
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मृगापुत्र की जातिस्मृति
..."चितइ""कत्थ मया एवंगुणजातितो पव्वतो दिटु- तित्थगरो एरिसीए आगीइए तत्थ दिट्रोत्ति । पितामहपूव्वोत्ति ? चितयंतेण जाती संभरिता-पूव्वं माणुसभवे लिंगदरिसणेण पोराणाओ जातिओ सरिताओ, विन्नातं च सामण्णं काऊण पुप्फूतरे विमाणे उववण्णो आसी। तत्थ अन्नपाणादि दायव्वं तवस्सीणंति । देवत्ते मंदरो जिणमहिमाइसु आगएण दिटुपुव्वोत्ति संबुद्धो
(आवच १ पृ १६४,१८०) पव्वतितो।
(उचू पृ १७९) अर्हत् ऋषभ ने संवत्सर तप का पारणा अपने पौत्र नमि राजा ने स्वप्न में देखा मैं मंदराचलस्थित श्रेयांसकमार के हाथ से किया। उस समय अन्य सब लोग श्वेत हाथी पर आरूढ हूं । नन्दिघोषों से जाग जाने पर
मुनि की भिक्षाविधि से अनभिज्ञ थे। राजा सोमप्रभ आदि राजा ने सोचा-- ऐसा पर्वत मैंने पहले भी कहीं देखा।
ने कुतुहलपूर्वक श्रेयांस से जिज्ञासा की-आयुष्मन् ! है-इस चिंतन की गहराई में उतरते ही उन्हें जाति
तुमने कैसे जाना कि हमारे परमगुरु भगवान् ऋषभ को स्मृति ज्ञान हो गया। उस ज्ञान से जान लिया कि मैंने
भिक्षा देनी चाहिये? हमें भी इसका रहस्य समझाओ। देवभव से पूर्व मनुष्य के भव में साधुत्व को स्वीकार किया था। वहां से मरकर पुष्पोत्तर विमान में उत्पन्न
श्रेयांस ने कहा-पूज्य दादागुरु को मुनिपरिवेश में हआ। उस देवभव में देव के रूप में जिनमहिमा के अवसर
देख मैं चिन्तन में डूब गया -क्या ऐसा प्रतिरूप मैंने पहले पर मैं मंदर-गिरि पर आया था--इस स्मृति से वे संबुद्ध ।
कहीं देखा है ? चिन्तन की एकाग्रता से मुझे अनेक जन्मों हो प्रव्रजित हो गये।
की स्मृति हो आई। उस जातिस्मृति से मुझे भिक्षादान
की विधि ज्ञात हो गई। यह सुन लोगों को बड़ा आश्चर्य ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को जातिस्मृति
हुआ। उन्होंने फिर जिज्ञासा की-श्रेयांस ! कहो, तुम .."अन्यदा चोपनीतं देवतया मन्दारदाम । समुत्पन्न
किस भव में किस रूप में थे ? यह पूछने पर श्रेयांस ने तदर्शनादस्य जातिस्मरणम् अनुभूतानि मयैवंविधकुसुम
अपने तथा अपने पितामह ऋषभ के आठ पूर्वभवों की दामानि । अहं हि नलिनगूल्मविमाने देवोऽभवम् ।
संबंध-परम्परा का उल्लेख किया, जिसका विशद वर्णन (उशावृ प ३८२)
वसुदेवहिंडी में है। देवता द्वारा उपहृत मंदारपुपमाला को देखकर
____ अंत में श्रेयांस ने बताया कि देवभव से पूर्व के भव ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती चिन्तन में डूब गया-ऐसी पुष्पमालाओं
में मैंने तीर्थंकर वज्रसेन को ऐसे आकार-प्रकार में देखा का मैंने पहले कभी अनुभव किया है। विमर्श करते-करते
था, जैसा कि आज अर्हत ऋषभ को देख रहा है। इस उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। इससे उसने
मुनिवेश को देख मुझे अतीत के जन्मों की स्मृति हई और साक्षात् जान लिया कि मैं पूर्व जन्म में नलिनीगुल्म विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ था।
उसी के आधार पर मैं इस महान तपस्वी को इक्षुरस का
दान कर धन्य हुआ हूं। श्रेयांस को आठ जन्मों को स्मृति
मृगापुत्र को जातिस्मृति __..."रायाणो सोमप्पभादयो लोगा य परेण कोऊहल्लेण । पुच्छंति सेज्जंसकुमारं --सुमुह ! ..कहं तुमे विनायं जहा
तं देहई मियापुत्ते, दिट्ठीए अणिमिसाए उ । भगवतो परमगुरुस्स भिक्खं दायव्वंति, कहेहि णे परमत्थं ।
कहिं मन्नेरिसं रूवं, दिट्ठपुव्वं मए पुरा॥ ताहे सो तेसिं पकहितो, जहा -- मम पितामहस्स दिक्खि
साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणम्मि सोहणे । यस्य रूबदसणे चिता समुप्पन्ना कत्थ मन्ने एरिसरूवं
मोहंगयस्स संतस्स, जाईसरणं समुप्पन्न । दिट्टपुवंति ! वियारेमाणस्स बहभवितं जातीस्सरणं
(उ १९।६,७) समुप्पन्न, ततो मया णायं भगवतो भिक्खादाण । ततो ते मृगापुत्र ने श्रमण को अनिमेष दृष्टि से देखा और परमविम्हिता भणंति - साह केरिसोऽसि केस भवेसु मन ही मन चिन्तन करने लगा - 'मैं मानता हूं कि ऐसा आसी? ताहे सो तेसि अप्पणो सामिस्स य अभवग्गह- रूप मैंने पहले कहीं देखा है।' साधु के दर्शन और णाणि कहेति, जहा वसुदेवहिंडीए। .."मया वइरसेण- अध्यवसाय पवित्र होने पर “मैंने ऐसा कहीं देखा है"
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