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वीतरागता के परिणाम
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जिन
इस विषय में सम्मोहित हो गया, चित्तवृत्ति सघन रूप में कम्मारिजियत्तणातो जिणो। (अनुच पृ ४३) एकाग्र हो गई, विकल्प शांत हो गए और जातिस्मृति जिनः परीषहोपसर्गजेता। (उशाव प ४९८) ज्ञान उत्पन्न हो गया।
जो कर्म शत्रुओं, परीषहों और उपसर्गों पर विजय जातिस्मृति की प्रक्रिया
प्राप्त करते हैं, वे जिन हैं। 'अध्यवसाने' इत्यन्तःकरणपरिणामे शोभने प्रधाने जिनः -जितसकलकर्मा भवोपन क्षायोपशमिकभावर्तिनीति यावत् 'मोह' क्वेदं मया दष्टं दग्धरज्जुसंस्थानतयैव तेन व्यवस्थापनात, मुक्त्यवस्थाक्वेदमित्यतिचिन्तातश्चित्तसंघटजमूत्मिकं गतस्य। पेक्षया वा।
(उशावृ प ४९८) (उशा प ४५२) जिन को सकलकर्मजेता य हा गया है। इसके दो हेतु पूर्वजन्म के स्मरण की विशेष पद्धति है। कोई व्यक्ति हैं -- उनके भवोपग्राही (अघाति) कर्म दग्ध-रज्जु-संस्थान पूर्व परिचित व्यक्ति को देखता है, तत्काल चैतसिक की तरह अकिचित्कर होते हैं । उनकी मुक्ति अवश्य होती संस्कारों में एक हलचल होती है। वह सोचता है कि है। इस प्रकार का आकार मैंने कहीं देखा है ? ईहा, अपोह, वीतराग के वचन सत्य मार्गणा और गवेषणा के द्वारा चिन्तन आगे बढ़ता है।
भय-राग-दोस-मोहाभावाओ सच्चमणइवाइंच। मैंने यह कहां देखा ? यह कहां है ?- इस प्रकार की
सव्वं चियं मे बयणं जाणयमझत्थवयणं व ।। चिता का एक संघर्ष चलता है । उस समय व्यक्ति संमोहन
(विभा १५७८) की स्थिति में चला जाता है। उस स्थिति में उसे पूर्व
ज्ञाता और वीतराग के वचन मार्गज्ञ के वचन की तरह जन्म की स्मृति हो जाती है।
सत्य और अबाधित होते हैं, क्योंकि वे राग, द्वेष, भय ___ इससे जाति-स्मरण की प्रक्रिया के तीन अंग फलित
और मोह से अतीत होते हैं। होते हैं१. दृश्य वस्तु या व्यक्ति का साक्षात्कार ।
वीतरागता के परिणाम २. अध्यवसान की शुद्धि ।
___ वीयरागयाए णं नेहाणुबंधणाणि तण्हाणुबंधणाणि य ३. संमोहन ।
वोच्छिदइ, मणुन्नेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु चेव विरज्जइ। (जातिस्मृति के द्वारा पूर्ववर्ती संख्येय जन्मों की
(उ २९।४६) स्मृति होती है। वे सारे समनस्क जन्म होते हैं। जाति
वीतरागता से जीव स्नेह के अनुबंधनों और तृष्णा स्मृति मतिज्ञान का एक प्रकार है। देखें- आचागंग
के अनुबंधनों का विच्छेद करता है तथा मनोज्ञ और १११-४ का भाष्य ।)
अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध से विरक्त हो तस्सोवसंपत्ती सहसंमूइयाए परवागरणेणं अण्णेसिं वा
जाता है। सोच्चा तत्थ सहसंमुतियाए जातीसरणादिणा ।
एविदियत्था य मणस्स अत्था (आवचू २ पृ २७५)
दुक्खस्स हेउं मण यस्स रागिणो। सम्यक्त्व-प्राप्ति के तीन हेतु -
ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं १. स्वस्मृति, २. अर्हत् का उपदेश और
न वीयरागस्स करेंति किचि ।। (उ ३२१००) ३. दूसरों से सुनना। यहां स्वस्मृति का अर्थ है
इन्द्रिय और मन के विषय रागी मनुष्य के लिए दुःख जातिस्मृति ।
के हेतु होते हैं। वे वीतराग के लिए कभी किंचित् भी जिन-वीतराग, अर्हत् ।
दुःखदायी नहीं होते। जियकोहमाणमाया जियलोहा तेण ते जिणा हुंति ।...
(आवनि १०७६) जो क्रोध, मान, माया और लोभ पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, वे जिन कहलाते हैं।
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