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जातिस्मृति
चित्त
फिर मणसा शब्द का परिवर्तन होगा। 'मणसा' के स्थान छेदोपस्थापनीय विभागपूर्वक महाव्रतों की उप
स्थापना ।
पर ' वयसा' फिर 'कायसा' आएगा। एक-एक का २००० होने से तीन योगों के (२०००x३) ६००० होंगे । फिर 'करंति' शब्द में परिवर्तन होगा । करंति के स्थान पर 'कारयति' और 'समणुजाणंति' शब्द आएंगे । एकएक के ६००० होने से तीन करणों के (६०००X३) १८,००० शील के अंग हो जाएंगे ।
( द्र. चारित्र) जलचर -- जल में विचरने वाले जीव । तिर्यंच पंचेन्द्रिय का एक भेद (द. तिर्यंच)
जातिस्मृति - पूर्व जन्मों का ज्ञान । जातिस्मृति के तीन हेतु
१. बाह्य निमित्त से जातिस्मृति
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चित्त- स्थल शरीर के साथ कार्य करने वाली चेतना | (द्र. आत्मा; ज्ञान )
चूलिका - चोटी, ग्रंथ का परिशिष्ट । मूल ग्रंथ में उक्त या अनुक्त विषय का प्रतिपादन करने वाला प्रकरण । दृष्टिवाद का पांचवां भेद | (द्र दृष्टिवाद)
छद्मस्थ -घातिकर्मों के आवरण से युक्त ।
छादयतीति छद्म घातिकर्मचतुष्टयं तत्र तिष्ठति छद्मस्थ: अनुत्पन्न केवलः । ( उशावृ प ५६४ )
जो आत्मगुणों को आच्छादित करता है, वह छद्म है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ---ये चार घातिकर्म छद्म कहलाते हैं । इनसे युक्त जीव छद्मस्थ कहलाता है । यह केवलज्ञान उत्पन्न होने से पूर्व की अवस्था है ।
छद्मस्थ मरण-मरण का एक भेद । (द्र. मरण) छन्दना - आहार के लिए साधर्मिक साधुओं को आमंत्रित करना । सामाचारी का एक प्रकार । ( द्र. सामाचारी)
छविपर्व - औदारिक शरीर ।
छवि: - त्वक् पर्वाणि च - जानुकूर्परादीनि छविपर्व तद्योगादौदा रिकशरीरमपि छविपर्व | ( उशावृ प २५१ )
छवि का अर्थ है त्वचा । जानु, कूर्पर आदि पर्व हैं । इनसे युक्त होने के कारण औदारिक शरीर छविपर्व कहलाता है ।
छेद - दोष की विशुद्धि के लिए दीक्षापर्याय का छेदन कर उसे कम कर देना । प्रायश्चित्त का सातवां भेद | (द्र प्रायश्चित्त)
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'दट्ठूण ते कामगुणे विरता ॥
"सरितु पोराणिय तत्थ जाई, तहा सुचिण्णं तवसंजमं च ॥ ( उ १४/४, ५)
भृगु पुरोहित के पुत्रों ने निर्ग्रन्थ को देखा। उन्हें पूर्वभव की स्मृति हुई और भलीभांति आचरित तप और संयम की स्मृति जाग उठी। वे कामगुणों से विरक्त हो
गये ।
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ते दारगा साहू दट्ठूण अम्हेहि एयारिसाणि रुवाणि संभरिया, संबुद्धा |
चितिउं पयत्ता कत्थ दिट्ठपुव्वाणित्ति ? जाई ( उचू पृ २२१) साधुओं को देखकर भृगुपुत्र चिन्तन में एकाग्र हो गए ऐसा रूप हमने पहले कहीं देखा है ऐसा सोचतेसोचते उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति हो आयी और वे सम्बुद्ध हो गये ।
२. शुभ अध्यवसाय से जातिस्मृति अंगरसी भओ वणसंडे चितेइ - सुहज्भवसाणेण जाती सरिया । ( आवहावृ २ पृ १४३) भद्र अंगर्ष चिन्तन में डूब गया, शुभ अध्यवसाय से उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न्न हुआ । (अध्यवसाय और लेश्या की विशुद्धि के क्षणों में जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न होता है ।)
३. मोह के उपशम से जातिस्मृति
....उवसंतमोहणिज्जो, सरई पोराणियं जाई ॥ (उ९1१ ) दंसणमोहणिज्जं चरित्रमोहणिज्जं च उवसंत जस्स सो भवति उवसंतमोहणिज्जो । ( उचू पृ १८० ) जिसके दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय दोनों उपशांत होते हैं, उसे पूर्वजन्म की स्मृति होती है ।
नमी राया सुमिणए पासति - सेयं नागरायं मंदरोवरिं च अत्ताणमारूढं णंदिघोसतूरेण य विबोहितो
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