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चक्रवर्ती भरत
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चक्रवर्ती
प्रत्येक महानिधि आठ-आठ चक्रों पर अवस्थित है। और ह्री-श्री-धति-कीति से सम्पन्न थे। वे हजार शुभ वे आठ योजन ऊंचे, नो योजन चौड़े, बारह योजन लम्बे लक्षणों से युक्त थे । वे अश्वपति, गजपति, नरपति और तथा मंजषा के संस्थान वाले होते हैं। वे सभी गंगा के नौ निधियों के स्वामी थे। भरतक्षेत्र के प्रथम अधिपति मुहाने पर अवस्थित रहते हैं।
थे। वे बत्तीस हजार जनपद-राजाओं पर शासन करते उन निधियों के कपाट वैडर्य-रत्नमय और सुवर्णमय थे। उनके हजारों रानियां थीं। लाखों देव उनकी सेवा होते हैं । उन पर चन्द्र, सूर्य और चक्र के आकार के चिह्न में थे। उन यशस्वी और चौदह रत्नों के अधिपति चक्रहोते हैं । वे सभी समान होते हैं और उनके दरवाजे के वर्ती का साम्राज्य पश्चिम में सागर पर्यंत और उत्तर में मुखभाग में खंभे के समान वृत्त और लम्बी द्वार-शाखाएं मंदरगिरिपर्यंत फैला हुआ था। होती हैं।
प्रव्रज्या ४. चक्रवर्ती भरत
भरहसामी दसहिं रायसहस्सेहिं सद्धि पब्वइओ। भरहे रहं परावत्तेत्ता जेणेव उसभकडे पव्वते तेणेव सेसा णव च विकणो सहस्सपरिवारा पव्वइया । आइच्चउवागच्छति उवागच्छित्ता तं पव्वयं तिक्खत्तो रहसीसेणं जसो सकोण अभिसित्तो। एवं अट्र पूरिसजुगाणि फुसति रहं ठवेति, कागणिरयणं परामुसति, परामुसित्ता अभिसित्ता ।।
___ (आवचू १ पृ २२८) उसभकडस्स पुरथिमिल्लसि कडगंसि णामगं आउडेति। भरत चक्रवर्ती दस हजार राजाओं के साथ प्रव्रजित
ओसप्पिणी इमीसे ततियाएँ समाएँ पच्छिमे भाए। हए । शेष नौ चक्रवर्ती हजार-हजार राजाओं के साथ अहयंमि चक्कवट्टी भरहो इति णामधेज्जेणं ॥ प्रवजित हुए । सम्राट भरत की दीक्षा के पश्चात् शक्र ने अहमंसि पढमराया इहाहि भरहाहिवो णरवरिंदो। आदित्ययश का राज्याभिषेक किया। आठ पुरुषयुग-- णत्थि महं पडिसत्तू जितं मए भारह वासं ।। महायश, अतिबल, बलभद्र, बलवीर्य, वीर्य, जलवीर्य
(आवचू १ पृ २००) और दंडवीर्य तक यह अभिषेक का क्रम चला। चक्रवर्ती भरत ऋषभकूट पर्वत के पूर्वी भाग में
भरत को कैवल्य काकणी रत्न से अपना नाम-परिचय उत्कीर्ण करता है__ इस अवसर्पिणी कालचक्र के तीसरे अर के पश्चिम
एयं पूण्णपयं सोच्चा, अत्थधम्मोवसोहियं । भाग में मैं भरत नाम वाला प्रथम चक्रवर्ती हैं। मैं संपूर्ण
भरहो वि भारहं वासं, चेच्चा कामाइ पव्वए॥ भरतक्षेत्र का अधिपति हुँ । मेरा कोई प्रतिशत्र नहीं है।
(उ १८।३४) मैंने भारतवर्ष को जीत लिया है।
अर्थ (मोक्ष) और धर्म से उपशोभित पवित्र उपभरहे राया महता हिमवंतमलयमंदरजावरज्जं पसा- देश को सुनकर भरत चक्रवर्ती ने भारतवर्ष और कामहेमाणे विहरति ।
(आवचू १ पृ २०७) भोगों को छोड़कर प्रव्रज्या ली। भरत सम्राट का साम्राज्य हिमवान्, मलय और आयंसघरपवेसो भरहे पडणं च अंगुलीअस्स । मंदर पर्वत पर्यंत व्याप्त था।
सेसाणं उम्मुअणं संवेगो नाण दिक्खा य । वसुधर गुणधर जयवर हिरिसिरिधितिकित्तिधारक नरिंद ।
(आवनि ४३६) लक्खणसहस्सधारक नायमिणं णे चिरं धारे । सव्वालंकारविभूसितो आयंसघरं अतीति, तत्थ य हयवतिगजवतिणरवतिणवनिहिवति भरहवासपढमवति !। सव्वंगिओ पूरिसो दीसति, तस्स एवं पेच्छमाणस्स अंगुलीबत्तीसजणवयसहस्सरायसामी चिरं जीव ॥ ज्जगं पडियं तं च तेण ण णायं पडियं, एवं तस्स पलोएं
पढमणरीसर ईसर हियईसर महिलियासहस्साणं । तस्स जाहे तं अंगुलि पलोएति जाव सा अंगुली न सोहति देवसयसहस्सीसर चोद्दसरयणीसर जसंसी ॥ तेण अंगलीज्जएण विणा, ताहे पेच्छति पडियं, ताहे सागरगिरिपेरंत उत्तरपाईणमभिजितं तुमए। कडगंपि अवणेति, एवं एक्केक्क आभरणं अवणंतेण तं अम्हे देवाणुप्पियस्स विसए परिवसामो ॥ सव्वाणि अवणीताणि, ताहे अप्पाणं पेच्छति, उच्चिय
(आवचू १ पृ १९८, १९९) पउमं व पउमसरं असोभमाणं पेच्छई। पच्छा भणति भरत चक्रवर्ती रत्नों का धारक, गुणों का आलय आगंतुएहिं दवेहिं विभूसितं इमं सरीरगति, एत्थं संवेग
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