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चक्रवर्ती
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मावनो । इमं च एवं गतं सरीरं, एवं चितेमाणस्स ईहाबूहामग्गणगवेसणं करेमाणस्स अपुव्वकरणं भाणं अणुपविट्ठो केवलणाणं उप्पाडेति । ( आवचू १ पृ २२७ ) एक दिन चक्रवर्ती भरत ने आदर्श गृह में प्रवेश किया | वहां वे अपने अलंकारों से अलंकृत शरीर को शीशे में देख रहे थे । सहसा उनकी अंगुली से एक अंगूठी नीचे गिर गई । जब अंगूठीविहीन अंगुली पर उनकी दृष्टि पड़ी तो वह अंगुली सुन्दर नहीं लगी, इससे चिंतनधारा बदली और एक-एक कर उन्होंने सभी आभूषण उतार दिये। फिर अपने शरीर को शीशे में देखा तो वह पद्मविहीन पद्मसरोवर की तरह अरमणीय लगा । शरीरप्रेक्षा से यह अनुचितन उभरा कि यह शरीर मूल में सुन्दर नहीं है, बाह्य आभूषणों से सुन्दर लगता हैइस अनुप्रेक्षा से वैराग्य वृद्धि हुई । ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते-करते सम्राट् भरत ने अपूर्वकरण ध्यानश्रेणी में अनुप्रविष्ट हो केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ।
५. सगर आदि चक्रवर्ती
सगरो वि सागरंतं, भरहवासं नराहिवो । इस्सरियं केवलं हिच्चा, दयाए परिनिव्वडे ॥ (उ १८।३५)
सगर चक्रवर्ती सागर पर्यंत भारतवर्ष और पूर्ण ऐश्वर्य को छोड़ अहिंसा की आराधना कर मुक्त हुए । मधवा चक्रवर्ती
चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिड्ढिओ । पव्वज्जमब्भुवगओ, मघवं नाम महाजसो || (१८३६)
महद्धिक और महान् यशस्वी मघवा चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर प्रव्रज्या ली ।
सनत्कुमार चक्रवर्ती
सकुमारी मणुसिन्दो, चक्कवट्टी महिडिओ | पुत्तं रज्जे ठवित्ताणं, सो वि राया तवं चरे ॥
( उ १८/३७) को राज्य
पुत्र
महर्द्धिक राजा सनत्कुमार चक्रवर्ती ने सौंप कर तपश्चरण किया ।
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शांति चक्रवर्ती
चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिडिओ | संतसंतिक लोए, पत्तो गइमणुत्तरं ॥
इक्खागरायवसभो, विक्खायकित्ती धिइमं
महर्द्धिक और लोक में शांति करने वाले शांतिनाथ चक्रवर्ती ने भारतवर्ष को छोड़कर अनुत्तर गति प्राप्त की । कं चक्रवर्ती
सगर आदि चक्रवर्ती
कुंथु नाम नराहिवो । मोक्खं गओ अणुत्तरं ॥ ( उ १८३९ ) इक्ष्वाकु कुल के राजाओं में श्रेष्ठ, विख्यात कीर्ति वाले, धृतिमान् भगवान् कुन्थु नरेश्वर ने अनुत्तर मोक्ष प्राप्त किया ।
अर चक्रवर्ती
सागरतं जहित्ताणं, भरहं वासं नरीसरो । अरो य अरयं पत्तो पत्तो गइमणुत्तरं ॥
( उ १८/४०) सागर पर्यंत भारतवर्ष को छोड़कर, कर्मरज से मुक्त होकर 'अर' नरेश्वर ने अनुत्तर गति प्राप्त की । महापद्म चक्रवर्ती
चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी नराहिवो । चइत्ता उत्तमे भोए, महापउमे तवं चरे ॥
विपुल राज्य, सेना और वाहन तथा छोड़कर महापद्म चक्रवर्ती ने
तप
किया ।
हरिषेण चक्रवर्ती
(उ १८ १३८)
( शत्रु - राजाओं का मान मर्दन चक्रवर्ती ने पृथ्वी पर एक छत्र शासन त्तर गति प्राप्त की ।
जय चक्रवर्ती
एगच्छत्तं पसाहित्ता, महि माणनिसूरणो । हरिसेणो मणुस्सिदो, पत्तो
गइमणुत्तरं ॥
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(उ १८/४१)
उत्तम भोगों
का आचरण
(उ १८ ।४२ ) करने वाले हरिषेण किया, फिर अनु
अन्निओ रायसहस्सेहि, सुपरिच्चाई दमं चरे । जयनामो जिणक्खायं, पत्तो गइमणुत्तरं ॥
( उ १४/४३)
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