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चक्रवर्ती
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शंख महानिधि
ग्राम, आकर, नगर, पट्टण, द्रोणमुख, मडंब, स्कंधा- महाकाल महानिधि वार और गहों की रचना का ज्ञान नैसर्प महानिधि से
लोहस्स य उप्पत्ती होइ महाकालि आगराणं च । होता है।
रुप्पस्स सुवण्णस्स य मणिमुत्तिसिलापवालाणं ।। पांडुक महानिधि
(आवचू १ पृ २०२) गणियस्स य उप्पत्ती माणम्माणस्स जं पमाणं च ।
लोह, चांदी तथा सोने के आकर, मणि, मुक्ता, धन्नस्स य बीयाण य णिप्फत्ती पंडुए भणिता।
स्फटिक और प्रवाल की उत्पत्ति का ज्ञान 'महाकाल'
(आवच १५२०२) महानिधि से होता हैं। गणित की उत्पत्ति, मान-उन्मान का प्रमाण तथा माणवक महानिधि धान्य और बीजों की निष्पत्ति का ज्ञान 'पांडुक' महा- जोहाण य उप्पत्ती आवरणाणं च पहरणाणं च । निधि से होता है।
सव्वा य जुद्धणीती माणवगे डंडणीती य ॥ पिंगल महानिधि
(आवचू १ पृ २०२) सव्वा आहरणविही पुरिसाणं जा य होति महिलाणं । योद्धाओं, कवचों और आयुधों के निर्माण का ज्ञान आसाण य हत्थीण य पिंगलगणिहिमि सा भणिया ॥ तथा समस्त युद्धनीति और दण्डनीति का ज्ञान 'माणवक'
(आवचू १ पृ २०२) महानिधि से होता है। स्त्री, पुरुष, घोड़े और हाथियों की समस्त आभरण- शंख महानिधि विधि का ज्ञान "पिंगल' महानिधि से होता है।
णट्टविहि णाडगविही कव्वस्स य चउविहस्स उप्पत्ती । सर्वरत्न महानिधि
संखे महाणिहिम्मी तुडियंगाणं च सव्वेसि ।। रयणाणि सव्वरतणे चउदसवि वराइं चक्कवट्रिस्स।
(आवचू १ पृ २०२) उप्पज्जती पंचेंदियाइं एगिदियाइं च ।।
नत्यविधि, नाटकविधि, चार प्रकार के काव्यों तथा
सभी प्रकार के वाद्यों की विधि का ज्ञान 'शंख' महानिधि चक्रवर्ती के सात एकेन्द्रिय और सात पञ्चेन्द्रिय से होता है। रत्न-इन चौदह रत्नों की उत्पत्ति का वर्णन 'सर्वरत्न' पलिओवमट्टितीया णिहिसरिणामा य तेसु खलु देवा । महानिधि से होता है।
जेसि ते आवासा, अक्केज्जा आहिवच्चाय ।। महापद्म महानिधि
एते णवणिहिरयणा पभूतधणरयणसंचयसमिद्धा ।
जे वसमणुगच्छंती भरहाहिवचक्कवट्टीणं ।। वत्थाण य उत्पत्ती णिप्फत्ती चेव सव्वभत्तीणं ।
(आवच १ पृ २०३) रंगाण य धोव्वाण य सव्वा एसा महापउमे ।।
वे सभी निधि एक पल्योपम की स्थिति वाले होते (आवचू १ पृ २०२)
हैं । जो-जो निधियों के नाम हैं, उन्हीं नामों के देव उनमें रंगे हुए या श्वेत सभी प्रकार के वस्त्रों की उत्पत्ति
आवास करते हैं । उनका क्रय-विक्रय नहीं होता और उन व निष्पत्ति का ज्ञान 'महापद्म' महानिधि से होता है।
पर सदा देवों का आधिपत्य रहता है। काल महानिधि
। वे नौ निधि प्रभूत धन और रत्नों के संचय से काले कालन्नाणं भव्व पुराणं व तिसुवि वासेसु । समृद्ध होते हैं और वे समस्त चक्रवर्तियों के वश में रहते सिप्पसयं कम्माणि य तिण्णि पयाए हितकराणि ।।
(आवचू १ पृ २०२) चक्कट्रपतिद्वाणा अठ्ठस्सेहा य णव य विक्खंभो। अनागत व अतीत के तीन-तीन वर्षों के शुभाशुभ का बारसदीहा मंजूस-संठिता जण्हवीयमुहे ।। कालज्ञान, सौ प्रकार के शिल्पों का ज्ञान और प्रजा के वेरुलियमणिकवाडा कणगमया विधिहरयणपडिपुन्ना । लिए हितकर सुरक्षा, कृषि, वाणिज्य --इन तीन कर्मों ससिमूरचक्कलक्खण अणुसमवयणोववत्तीया ॥ का ज्ञान 'काल' महानिधि से होता है।
(आवचू १ पृ २०२)
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