________________
काकणी रत्न
२५९
चक्रवर्ती
सहस्सकंचणसलागपरिमंडितं महरिहं अतोज्झरन्नो य मुद्धागतेणं दुक्खं न किंचि जाव हवति । अरोगे य संचारिगं विमाणं सूरातववातवट्रिदोसाण खतकरं तव- सव्वकालं। तेरिच्छियदिव्वमाणसकता य उवसग्गा सव्वे गुणे हिं लद्धं--
ण करेंति तस्स दुक्खं । संगामेऽवि य असत्थवज्झो होहिति अहतं बहुगुणदाणं उऊण विवरीतसुहकयच्छायं । णरो, मणिवरं धरेंतो ठितजोवणकेसअवट्टितणहो, हवति छत्तरयणं पहाणं सुदूल्लभं अप्पुन्नाणं ॥ य सव्वभय विष्पमुक्को, तं मणिरयणं गहाय से णरवई
..."दिवे छत्तरयणे भरहेणं रन्ना परामुळें खिप्पामेव हत्थिरयणस्स दाहिणिल्लाए कुंभीए निक्खिवेइ। दुवालस जोयणाइं पवित्थरइ साहियाइं तिरियं, तं
(आवचू १ पृ १९३) खंधावारस्स उवरिं ठवेति । (आवच १ पृ १९७) अमूल्य मणि रत्न चार अंगुल लम्बा और तिरछा
महामूल्यवान् दिव्य छत्र रत्न निन्यानवे हजार स्वर्ण- होता है। इसके छह कोण हाते हैं। वैडर्यमणि-सी आभा शलाकाओं से परिमंडित होता है। इसे धारण करने बाला वाला यह रत्न अनुपम द्युतिमान होता है । जो इसे मस्तक अयोध्य होता है। आतप, वर्षा आदि दोषों का नाशक पर धारण करता है, वह सब प्रकार के रोगों और दुःखों छत्र तप से प्राप्त होता है। यह गर्मी में ठंडी और सर्दी से मुक्त रहता है। देव, मनुष्य और तिथंच द्वारा कृत में गर्म छाया देता है। चक्रवर्ती जब इसे हाथ में उठाता उपसर्ग उसे उत्पीडित नहीं करते । संग्राम में निःशस्त्र है तो यह कुछ अधिक बारह योजन में तिरछा फैल जाता होने पर भी वह वध्य नहीं होता। वह सदा युवा बना
रहता है। उसके केश और नख नहीं बढ़ते । वह अभय चर्म रत्न
होता है। चक्रवर्ती इस मणि रत्न को हस्तिरत्न के दिव्वं चम्मरयणं परामसति, तए णं तं सिरिवच्छ- दाहिने कुम्भस्थल पर स्थापित करता है। सरिसरूवं मृत्तातारयद्धचंदचित्तं अयलमकपं अभिज्जकवयं काकणी रत्न जंतं सलिलासु सागरेसु य उत्तरणं । दिव्वं चम्मरयणं
से भरहे छत्तलं दुवालसंसियं अट्ठक णिक अहिकरणसणसत्तरसाइं सव्वधन्नाइं जत्थ रोहंति एगदिवसेण
संठितं अट्ठसोवन्निकं कागणि रयणं परामुसति। तए णं तं वाविताई । वासं णाऊण चक्कवट्टीणं परामट्ठ दिव्वचम्म
चउरंगुलप्पमाणमेत्तं अट्ठसुवन्नं च विसहरणं अतुलं रयणे दुवालसजोयणाई तिरियं पवित्थरति तत्थ
चउरससंठाणसंठियं समतलं माणुम्माणपमाणजोगजुत्तो साहियाई। तए णं से चम्मरयणे खिप्पामेव णावाभूते जाते,
लोगे चरंति सव्वजणपन्नवणका। ""अंधकारे जत्थ तेहि तए णं से सेणावइ सखंधावारबले चम्मरयणं दुरूहति ।
तकं दिव्वप्पभावजुत्तं दुवालसजोयणाणि तस्स लेसाउ सिंधु महानइं विमलजलतुंगवीइयं णावाभूतेणं चम्मरयणेणं
विवड्ढं ति तिमिरणिगरपडिसिहिक्काओ, रत्ति च सव्वउत्तरति ।
(आवचू १ पृ १९१) दिव्य चर्म रत्न का आकार श्रीवत्स जैसा होता है।
कालं खंधावारे करेंति आलोकं दिवसभूतं । जस्स पहावेण उस पर मुक्ता, तारे और अर्धचंद्राकार चित्र बने होते चक्कवट्टी तिमिसगुहमतीति सेन्नसहिते अभिजेतं बितियहैं । वह अचल, अकंप और अभेद्य कवच के रूप में यंत्र मड्ढभरहं । रायपवरे कागिणि गहाय तिमिसगुहापुरस्थिजैसा बन जाता है, जिससे नदी और समुद्र आसानी से मपच्चत्थि मिल्लेसु कडएसु जोयणंतरियाई पंचधणसपार किये जा सकते हैं। इस पर सन आदि सत्रह धान्यों यायामविक्खंभाइं जोयणुज्जोयकराइं चक्कनेमिसंठियाई की खेती एक ही दिन में पक जाती है। वर्षा से सुरक्षा चंदमंडलपडिणिकासाइं एगूणपन्नमंडलाइं आलिहमाणेके लिए चक्रवर्ती इसका स्पर्श करता है तो यह चर्म रत्न आलिहमाणे अणपविसइ, जाव धरति चक्कवटी ताव किर कुछ अधिक बारह योजन तक तिरछा फैल जाता है। ताणि मंडलाणि धरंति, गुहा य किर तहा उग्घाडिया नौका के रूप में परिणत चर्म रत्न पर आरूढ हो ससैन्य चेव । तए णं सा तिमिसगुहा तेहिं मंडलेहिं आलोयभूता सेनापति सिन्धु नदी को पार करता है।
उज्जोयभूता जाता यावि होत्था। मणि रत्न
(आवचू १ पृ १९३,१९४) चउरंगुलप्पमाणमेत्तं च अणग्घेयं तसं छलंसं अणोवम- काकणी रत्न के छह तल, बारह कोटि, आठ कोण जूति दिव्वं मणि रयणपतिसमं वेरुलियं सव्वभूतकंतं । जेण होते हैं। वह अहरन के संस्थान से संस्थित और आठ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org