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चक्रवर्ती
अंगुल, कान चार अंगुल बाहु बीस अंगुल, घुटने चार अंगुल, जंघा सोलह अंगुल और खुर चार अंगुल प्रमाण थे ।
वह देव, मन, पवन और गरुड़ से भी अधिक शीघ्रगामी, ऋषि की भांति क्षमाशील और सुशिष्य की भांति विनीत था । वह जल, अग्नि तथा पथरीले आदि सभी प्रकार के मार्गों और विषम गिरि-कंदराओं को लांघने में समर्थ था ।
वर्धकी रत्न ....स
आसमदो मुहगामपट्ट पुरवरखंधावारगिहावर्णविभागकुसले एगासीतिपदेसु सव्वेसु चेव वत्थू सु गुणजागे पंडिए विहिन्नू जलयाणं भूमियाण य भाजणं जलथलगुहासु जंतेसु परिहासु य कालनाणे तहेव सद्दे वत्थुपदेसे पहाणे
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इय तस्स बहुगुणड्ढे थवतीरतणे णरिदचंदस्स । तवसंजमणिविट्ठे किं करवाणी उवट्ठाति ॥ सो देवकम्मविधिणी खंधावारं णरिदवयणेणं । . आवसहभवणवलितं करेति सव्वं मुहुत्तेणं ॥
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करेति य पवरपोसहघरं तीसे णं गुहाए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं उमुग्गनिमुग्गजलाओ नामं दुवे महानदीओ पण्णत्ताओ वड्ढतिरयणे भरहवयणसंदेसेणं तासु भयहस्ससंनिविट्ठे अचलमकंप सालंबणबाहगं सव्वरयणामयं सुहसंकर्म करेइ । ( आवचू पृ १८७, १८८, १९४) वर्धकी रत्न आश्रम, द्रोणमुख, ग्राम, पत्तन, नगर, स्कन्धावार, गृह और आपण की विभागपूर्वक रचना करने में कुशल होता है । वह वास्तुकला के इक्यासी पदों - से अभिज्ञ होता है ।
वह जलीय और स्थलीय सुरंगों को जानकर उनमें काम आने वाले जलयान, स्थलयान तथा यंत्रों को बनाने में कुशल होता है। चक्रवर्ती तप-संयम साधना के द्वारा अनेक गुणों से सम्पन्न वर्धकी रत्न को प्राप्त करता है
वह वर्धकी देवों की भांति अन्तर्मुहूर्त में ही भवन, छावनी आदि की रचना कर देता है तथा चक्रवर्ती के लिए श्रेष्ठ पौषधशाला का निर्माण करता है। तमिस्रा गुफा के मध्यभाग में दो महान् नदियां हैं - उन्मग्नजला और निमग्नजला । वर्धकी रत्न इन नदियों पर रत्नमय मजबूत, अचल और अप्रकंप पुल का निर्माण करता है, जो लाखों खंभों पर प्रतिष्ठित होता है ।
चक्र रत्न
स्त्री रत्न
विणमी पाऊण चक्कवट्टीं दिव्वाए मतीए चोदितमती माणुम्माणप्पमाणजुत्तं तेयंसीं रूवलक्खणजुत्तं ठितजोव्वणं केसतिणहं सश्वामयणासणि बलकरि इच्छित सी उन्हफासजुतं समसरीरं भर हे वासंमि सव्वमहिलप्पहाणं ... जुत्तोवयारकुसलं अमरबहूणं सुरूवं रूवेण अणुहरति सुभद्दं भद्दमि जोवणे वट्टमाणि विणमी इत्थीरयणं... | ( आवचू १ पृ २०० ) विद्याधर विनमी ने चक्रवर्ती भरत को सुभद्रा नामक स्त्री रत्न समर्पित किया। वह स्त्री तेजस्वी, शक्तिसंपन्न और सर्व शुभ लक्षणों से युक्त होती है । उसका शरीर मान- उन्मान प्रमाणयुक्त होता है। चिरयौवना उस स्त्री के के न अवस्थित होते हैं । उसका समशीतोष्ण स्पर्श सब रोगों का नाश करता है ।
उसका संस्थान समचतुरस्र होता है । भरतक्षेत्र में सर्वोत्तम, देवांगनाओं के समान सुन्दर स्त्री रत्न लोकव्यवहार में कुशल होता है ।
चक्र रत्न
आहरणsa णिवेदितं जहा -- चक्करयणं उप्पन्नं 'चक्करयणे आयुधघरसालाओ पडिणिक्खमति अंतलिक्ख पडिवन्नज क्खसहस्ससंपरिवुडे तं दिव्वं चक्क - रयणं अणुगच्छमाणे जोयणंतरियाहि वसहीहि वसमाणे जेणेव मागहतित्थे तेणेव उवागच्छति । तं च किल चक्करयणं जोयणं गंतूण ठाति, तत्थ किल जोयणाण संखा जाता''''दिव्वे 'चक्करयणे वइरामयतुंबे लोहियक्खमयारए जंबूणयमीए णाणामणिखुरप्पवालिपरिगते... णामेण य सुदंसणे णरवइस्स पढमे चक्करयणे । ( आवचू १ पृ १ ८ १ - १८४, १८७) आयुधशाला के रक्षक ने सम्राट् भरत से कहाआयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है । यह चक्र एक हजार देवों से अधिष्ठित होता है जो चक्रवर्ती और उसकी सेना के आगे-आगे चलता है तथा प्रत्येक योजन पर जाकर रुक जाता है। इसी रत्न से योजनों की संख्या का प्रमाण होता है ।
चक्र की नाभि वज्रमय, आरे लोहिताक्षमय और म स्वर्णमय होती । सम्राट् भरत के चक्ररत्न का नाम था 'सुदर्शन' |
छत्र रत्न
दिव्वं छत्तरयणं परामुसति, तए णं तं णवणवति
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