________________
गोचरचर्या ।
२५४
गौरव
सो पूण खमओ वा जधा-"वियट्रभत्तियस्स कप्पंति असंसत्तं पलोएज्जा, नाइदूरावलोयए। सव्वे गोयरकाला, छुधालु वा दोसीणाति पढमालियं काउं उप्फुल्लं न विणिज्झाए, नियट्टेज्ज अयंपिरो । पाहणएहिं वा उवउत्ते ततो एवमातिम्मि कारणे उप्पण्णे।
(द ५११।२१-२३) .. (दअचू पृ १२६) जहां कोष्ठक में या कोष्ठकद्वार पर पुष्प, बीज - विकृष्ट तपस्वी के लिए सब गोचरकाल विहित हैं। आदि बिखरे हों, वहां मुनि न जाये। कोष्ठक को जो अत्यधिक भूख को सहन नहीं कर सकता, वह तत्काल का लीपा और गीला देखे तो मुनि उसका परिप्रातराश के लिए जा सकता है। प्राघूर्णक (अतिथि वर्जन करे। मुनि) के आगमन आदि कारणों से पुनः गोचरचर्या कर मुनि भेड़, बच्चे, कुत्ते और बछड़े को लांघकर या सकता है।
हटाकर कोठे में प्रवेश न करे।
मुनि अनासक्त दृष्टि से देखे। अति दूर न देखे। १२. भिक्षा संबंधी विवेक
उत्फुल्ल दृष्टि से न देखे । भिक्षा का निषेध करने पर साणीपावारपिहियं, अप्पणा नावपंगुरे। बिना कुछ कहे वापस चला जाये । कवाडं नो पणोलेज्जा, ओग्गहंसि अजाइया ।।
असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा।
(द ५।१।१८) जं जाणेज्ज सुणेज्जा वा दाणट्ठा "पुण्णट्ठा" मुनि गृहपति की आज्ञा लिए बिना सन और मृग- वणिमट्ठा"समणट्ठा पगडं इमं ॥ रोम के बने वस्त्र से ढका द्वार स्वयं न खोले, किवाड़ न तं भवे भत्तपाणं तु संजयाण अकप्पियं ।" खोले।
(द २११४७-५४) आगमणदायगस्सा हेट्ठा उरिं च होइ जह पुवि ।। यह अशन, पानक, खाद्य और स्वाद्य दानार्थ अथवा संजमआयविराहण दिलैंतो होइ वच्छेण ॥ पुण्यार्थ तैयार किया हुआ है, वनीपकों अथवा श्रमणों के
(ओनि ४७७) निमित्त तैयार किया हुआ है, मुनि यह जान जाये या भिक्षा लेकर आती हुई, भिक्षा देती हुई स्त्री को सुन ले तो वह भक्त-पान मुनि के लिए अकल्पनीय होता विकृत दृष्टि से न देखे । जैसे-एक भूखा-प्यासा बछड़ा है। केवल अपने चारे को ही देखता है, चारा डालने वाली १३. बाधा रोकने का निषेध अलंकृत महिला को नहीं देखता।।
गोयरग्गपविट्ठो उ, वच्चमुत्तं न धारए । बहुं परघरे अत्थि, विविहं खाइमसाइमं ।
ओगासं फासुयं नच्चा, अणुन्नविय वोसिरे ॥ न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा देज्ज परो न वा ।।
(द ५११।१९) सयणासण वत्थं वा, भत्तपाणं व संजए। अदेंतस्स न कुप्पेज्जा, पच्चक्खे वि य दीसओ ॥
गोचरान के लिए घर में प्रविष्ट मुनि मल-मूत्र की (द ५२।२७-२८)
बाधा न रोके । प्रासुक स्थान देख, गृहस्वामी की अनुगृहस्थ के घर में नाना प्रकार का प्रचुर खाद्य-स्वाद्य
मति लेकर बाधा से निवृत्त हो जाये। होता है, (किन्तु न देने पर) पण्डित मुनि कोप न करे। गोत्र-सम्माननीय और असम्माननीय स्थिति का (यों चिन्तन करे कि) इसकी अपनी इच्छा है, दे या न दे।
(द्र. कर्म) संयमी मुनि सामने दीख रहे शयन, आसन, वस्त्र, गौरव-गर्व, मद । भक्त या पान न देने वाले पर भी कोप न करे । जत्थ पुप्फाइ बीयाई, विप्पइण्णाई कोट्रए।
गुरुभावो गारवो प्रतिबंधो अतिलोभ इत्यर्थः । अहुणोवलित्तं उल्लं, दळूणं परिवज्जए ।
(आवचू २ पृ ७९) एलगं दारगं साणं, वच्छगं वावि कोट्टए ।
गुरुलाभाभिमानाध्मातचित्त आत्मैव तद्भावास्तस्य उल्लंघिया न पविसे, विऊहित्ताण व संजए॥ वैतान्यध्यवसानानि गौरवाणि । (उशावृ प ६१२)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org