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काल-विवेक
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गोचरचर्या
विचक्षण मुनि मित-भूमि में ही उचित भूभाग का दूर भिक्षा के लाभ प्रतिलेखन करे । जहां से स्नान-घर और शौचगह दिखाई एवं उग्गमदोसा विजढा पइरिक्कया अणोमाणं । पड़े, उस भूमिभाग का परिवर्जन करे।
मोहतिगिच्छा अ कया विरियायारो य अणुचिण्णो ।। सर्वेन्द्रिय समाहित मुनि उदक और मिट्टी लाने के
(ओनि २४९) मार्ग तथा बीज और हरियाली को वर्जकर खड़ा रहे।
• आधाकर्म आदि दोषों से बचाव । अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वा वि संजए।
० प्रचुर आहार की प्राप्ति । अवलंबिया न चिट्ठज्जा, गोयरग्गगओ मूणी ।।
० लोक में आदर के भाव ।
(द ५।२।९) ० श्रम के कारण मोहचिकित्सा का लाभ । गोचराग्र के लिए गया हुआ संयमी आगल, परिघ, ० वीर्याचार का पालन । द्वार या किवाड़ का सहारा लेकर खड़ा न रहे। ११. काल-विवेक गोयरग्गपविट्ठो उ, न निसीएज्ज कत्थई ।
कालेण निक्खमे भिक्ख, कालेण य पडिक्कमे ।... कहं च न पबंधेज्जा, चिद्वित्ताण व संजए॥
(द ५।२।४) (द ५।२।८)
भिक्ष समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय गोचरान के लिए गया हुआ संयमी कहीं न बैठे और पर लौट आए । अकाल को वर्जकर जो कार्य जिस समय खड़ा रहकर भी कथा का प्रबन्ध न करे ।
का हो, उसे उसी समय करे। परिवाडीए न चिट्ठज्जा
(उ ११३२) अकाले चरसि भिक्खु, कालं न पडिलेहसि । भिक्षु भिक्षा के लिए भिखारी की तरह पंक्ति में अप्पाणं च किलामेसि, सन्निवेसं च गरिहसि ।। खड़ा न रहे।
(द ५२५) समणं माहणं वा वि, किविणं वा वणीमगं ।
भिक्षो ! तुम अकाल में जाते हो, काल की प्रतिउवसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणढाए व संजए ।। लेखना नहीं करते, इसलिए तुम अपने आपको भी क्लान्त तं अइक्कमित्तु न पविसे, न चिठे चक्खुगोयरे । (खिन्न) करते हो और सन्निवेश (ग्राम) की भी निन्दा एगंतमवक्कमित्ता, तत्थ चिठेज्ज संजए। करते हो। वणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा । गोचरकाल अप्पत्तियं सिया होज्जा, लहत्तं पवयणस्स वा ।।
""तइयाए भिक्खायरियं"। (द ५२।१०-१२)
(उ २६।१२) भक्त या पान के लिए उपसंक्रमण करते हए (घर औत्सर्गिकमेतत्, अन्यथा हि स्थविरकल्पिकानां में जाते हए) श्रमण, ब्राह्मण, कृपण या वनीपक को यथाकालमेव भक्तादिगवेषणम् । (उशाव प ५४३) लांघकर संयमी मुनि गृहस्थ के घर में प्रवेश न करे। मुनि तीसरे प्रहर में भिक्षाचरी करे। यह अभिग्रहगृहस्वामी और श्रमण आदि की आंखों के सामने धारी मुनियों की भिक्षा-विधि है। स्थविरकल्पी मुनि खड़ा भी न रहे। किन्तु एकान्त में जाकर खड़ा हो यथासमय भिक्षा के लिए जाए। जाए।
सेज्जा निसीहियाए, समावन्नो व गोयरे । भिक्षाचरों को लांघकर घर में प्रवेश करने पर अयावयट्ठा भोच्चा णं, जइ तेणं न संथरे ।। वनीपक या गहस्वामी को अथवा दोनों को अप्रीति हो ।
तओ कारणम्प्पन्ने, भत्तपाणं गवेसए ।" सकती है अथवा उससे प्रवचन की लघुता होती है।
(द ५२।२,३) परमद्धजोयणाओ, विहारं विहरए मुणी।
उपाश्रय या स्वाध्याय-भूमि में अथवा गोचर (भिक्षा)
(उ २६६३५) के लिए गया हुआ मुनि मठ आदि में अपर्याप्त खाकर दूसरे ग्राम में भिक्षा के लिए जाना आवश्यक हो तो यदि न रह सके तो कारण उत्पन्न होने पर भक्त-पान की अधिक से अधिक अर्ध योजन तक जाए।
गवेषणा करे।
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