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चक्रवर्ती कोन?
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चक्रवर्ती
गौरव का अर्थ है-प्रतिबंध, अतिलोभ ।
साता गौरव अपनी उपलब्धि के अभिमान से ग्रस्त चित्त वाले सायागारविए ति साते-सुखे गौरवं–प्रतिबन्धः व्यक्ति के अध्यवसाय को गौरव कहते हैं ।
सातगौरवं, तदस्यास्तीति सातगौरविक एकः सुखगौरव के प्रकार
प्रतिबद्धो हि नाप्रतिबद्धविहारादौ प्रवत्तितुं क्षमः ।। तिहिं गारवेहि-इड्ढीगारवेणं, रसगारवेणं, साया
(उशावृ प ५५२) गारवेणं ।
(आव ४८)
सुख-सुविधा में बंध जाना साता गौरव है। सुखइड्ढीगारवो लोगसंणतीए नरिंददेविंदपूयाए वा
प्रतिबद्ध मुनि अप्रतिबद्ध विहारी नहीं हो सकता। भवति । रसगारवो जिब्भादंडो। सातागारवो सुहसागत्तणं चक्रवर्ती--भरत क्षेत्र के छह भूखंडों (वैताढयगिरि सयणासणवसहिवत्थादीहिं सहकारणेहि पडिबंधो।
के उत्तर और दक्षिण के तीन-तीन भू(आव २ पृ ७९,८०)
भागों) का अधिपति । गौरव के तीन प्रकार हैंऋद्धिगौरव- प्रचुर लोगों अथवा राजाओं तथा देवों
१. चक्रवर्ती कौन ? द्वारा वंदना-पूजा प्राप्त होने पर उसके २. चक्रवर्ती : एक परिचय प्रति होने वाली प्रतिबद्धता।।
३. चौदह रत्न और उनका विवरण रसगौरव-जिहन्द्रिय की आसक्ति, रसलोलुपता।
__ • नौ महानिधि सातागौरव-सुविधाजनक शयन, आसन, स्थान,
४. चक्रवर्ती भरत वस्त्र आदि सुखकारक पदार्थों के प्रति ५. सगर आदि चक्रवर्ती प्रतिबद्धता।
* शांति, कुंथ और अर-ये तीनों तीर्थंकर भी थे ऋद्धि गौरव
(प्र. तीर्थकर)
६. चक्रवर्ती और इन्द्र भव्य होते हैं इड्ढिगारविए त्ति ऋद्ध्या गौरवं श्राद्धा ऋद्धि- |
* चक्रवर्ती : एक लब्धि
(द्र. लब्धि) मन्तो मम वश्याः संपद्यते च यथाचिन्तितमुपकरण
७. चक्रवर्ती और वासुदेव कब? मित्याद्यात्मबहुमानरूपमृद्धिगौरवं तदस्यास्तीति ऋद्धि- ८. चक्रवर्ती और वासुदेव का क्रम गौरविको न गुरुनियोगे प्रवर्तते किमेतर्ममेति ।
(उशावृ प ५५२) १. चक्रवर्ती कौन ? ऋद्धि गौरव का अर्थ है-ऐश्वर्य का गौरव । ऐश्वर्य ""से चाउरते, चक्कवट्टी महिड्ढिए । का गौरव करने वाला शिष्य सोचता है--अनेक धनाढ्य
चउदसरयणाहिवई............... || व्यक्ति मेरे श्रावक हैं। वे मुझे यथेष्ट उपकरण आदि
यथा स चतसृष्वपि दिक्ष्वन्त:-पर्यन्त एकत्र हिमवालाकर देते हैं । यह सोचकर वह शिष्य आत्म-बहुमानरूप
नन्यत्र च दिक्त्रये समुद्रः स्वसम्बन्धितयाऽस्येति चतुरन्तः, ऋद्धि के अहं से ग्रस्त होकर 'गुरु से मुझे क्या लेना-देना'
चतुभिर्वा हयगजरथनरात्मकरन्त:-शविनाशात्मको यस्य इस चिन्तन से गुरु की आज्ञा में नहीं चलता।
(उ १११२२ शावृ प ३५०) रस गौरव
महान् ऋद्धिशाली, चतुरन्त चक्रवर्ती चौदह रत्नों का रसगारवेत्ति रसेषु -मधुरादिषु गौरवं – गायं अधिपति होता है। यस्यासौ रसगौरवो बालग्लानादिसमुचिताहारदानतपोऽनु- जिसके राज्य में एक दिगन्त में हिमवान् पर्वत और ष्ठानादौ न प्रवर्तते।
(उशाव प ५५२) तीन दिगन्तों में समुद्र हो, वह 'चातुरन्त' कहलाता है। रस गौरव का अर्थ है-जिह्वा की लोलुपता। इसका दूसरा अर्थ है - हाथी, अश्व, रथ और मनुष्यरसलोलुप शिष्य बाल, ग्लान आदि को समुचित आहार इन चार प्रकार की सेनाओं के द्वारा शत्रु का अन्त करने आदि नहीं देता और स्वयं तपस्या भी नहीं करता । वाला।
सः।
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