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माधुकरी वृत्ति
२. माधुकरी वृत्ति
जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरी आवियइ रसं । न य पुप्फं किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं ॥ एमे समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमा व पुप्फेसु, दाणभत्तेसणे रया || (द ११२, ३) जिस प्रकार भ्रमर पुष्पों से थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, किसी भी पुष्प को म्लान नहीं करता और अपने को भी तृप्त कर लेता है, उसी प्रकार लोक में जो मुक्त ( अपरिग्रही ) श्रमण साधु हैं वे दानभक्त (दाता द्वारा दिए जाने वाले निर्दोष आहार) की एषणा में रत रहते हैं- जैसे भ्रमर पुष्पों में ।
वयं च वित्ति लब्भामो, न य कोइ उवहम्मई । अहागडे रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा ॥ (द १1४ ) हम इस तरह से वृत्ति भिक्षा प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपहनन न हो । क्योंकि श्रमण यथाकृत ( सहज रूप से बना ) आहार लेते हैं, जैसे – भ्रमर पुष्पों से रस ।
एत्थ य भणेज्ज कोती समणाणं कीरती सुविहिताणं । पाकोवजीविणो त्ति य लिप्पंताऽऽरंभदोसेण ॥ वासति ण तणस्स कते ण तणं वड्ढति कते मयकुलाणं । णय रुक्खा सत्तसाहा फुल्लेति कते महुयराणं ॥ किच दुमा पुप्फेंती भमराणं कारणा अहासमयं । मा भमर-महुगरिगणा किलामएज्जा अणाहारा ॥ अत्थि बहू वणसंडा भमरा जत्थ ण उवेंति ण वसंति । तत्थ विपुप्फेंति दुमा पगती एसा दुमगणाणं ।। पगती एस दुमाणं जं उउसमयम्मि आगए सतं । पुष्फेंति पादवगणा फलं च कालेण बंधंति ॥
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गोचरचर्या
भ्रमर न जाते । इसका हेतु
क्योंकि ऐसे अनेक वनखंड हैं, जहां हैं, न रहते हैं, फिर भी वहां फूल खिलते है - दुम- नामगोत्र कर्म का उदय । द्रुमपुष्प अथवा वृक्ष मात्र की यह प्रकृति ही है कि वे समय आने पर अपनीअपनी ऋतु में पुष्पित- फलित होते हैं ।
अह
किष्णु गिही रंधंती समणाणं कारणा सुविहियाणं ? | मा समणा भगवंतो किलामएज्जा अणाहारा ॥ कंतारे दुब्भिक्खे आयंके वा महई समुप्पण्णे । रत्ति समणसुविहिया सव्वाहारं ण भुंजंति ॥ कीस पुण गित्था रति आयरतरेण रंधति ? | समणेहि सुविहिएहि चउव्विहाहारविरहि ॥ अत्थि बहुगाम- देसा समणा जत्थ ण उवेंति ण वसंति । तत्थ वि रंधति गिही पगती एसा गिहत्थाणं ॥ पगती एस गिहीणं जं गिहिणो गाम-नगर-निगमेसुं । रंधति अप्पणी परियणस्स कालेज अट्ठाए || एत्थ य समणसुविहिया परकड - परनिट्ठियं विगयधूमं । जोगाणं आहारं एसंती साहट्टाए ||
(दनि ३८-४३ ) कुछ व्यक्ति कहते हैं - श्रमण भूख से क्लांत न होंइस दृष्टि से उन पर अनुकंपा करने के लिए अथवा पुण्योपार्जन के लिए गृहस्थ भोजन पकाता है- यह कथन सही नहीं है ।
अटवी, दुर्भिक्ष और आतंक उत्पन्न होने पर तथा रात्रि के समय साधु आहार नहीं करते। उस समय में भी गृहस्थ तो भोजन पकाते ही हैं ।
बहुत सारे गांव और नगर ऐसे हैं, जहां श्रमण नहीं जाते । भोजन वहां भी पकता है । भोजन पकाना गृहस्थ की प्रकृति है । वह अपने लिए, अपने परिजनों के लिए यथासमय भोजन पकाता है ।
(दनि ३३-३७ ) सुविहित श्रमण पचन - पाचन की क्रिया नहीं करते; किंतु पाकोपजीवी होने के कारण वे हिंसा के भागी बनते हैं - यह शंका उचित नहीं है ।
जह दुमगणा उ तह णगरजणवया पयण पायणसभावा ।
भौरों के लिए फूल यथासमय पुष्पित होते हैं ताकि भौंरे निराहार न रहें, क्लांत न हों - यह कथन सही नहीं है ।
तृणों के लिए वर्षा नहीं होती, हरिणों के लिए तृण नहीं बढ़ते मधुकरों के लिए पेड़-पौधे पुष्पित नहीं जह भमरा तह मुणिणो णवरि अदिण्णं ण गेण्हंति ॥ होते । ( दनि ४८ ) जैसे द्रुम का स्वभाव है- फलित होना, वैसे ही लोगों का स्वभाव है अवधजीवी होते हैं,
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संयमयोगों की साधना के लिए श्रमण दूसरों के लिए कृत - निष्पन्न आहार की एषणा करते हैं ।
पचन- पाचन करना । जैसे भ्रमर वैसे ही मुनि अवधजीवी होते हैं ।
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