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गोचरचर्या
२५.
भिक्षागमन : विधि-निषेध
इन दोनों में अंतर इतना ही है कि मुनि अदत्त वस्तु का ५. सामुदानिक भिक्षा ग्रहण नहीं करते।
समुयाणं चरे भिक्खू, कूलं उच्चावयं सया। ३. कापोती वृत्ति
नीयं कुलमइक्कम्म, ऊसढं नाभिधारए । कावोया जा इमा वित्ती"।
(द ५।२।२५) भिक्षु सदा समुदान भिक्षा करे । उच्च और नीच (उ १९।३३)
सभी कुलों में जाए। नीच कुल को छोड़कर उच्च कुल में कपोताः-पक्षिविशेषास्तेषामियं कापोती येयं वृत्तिः न जाए। -निर्वहणोपायः, यथा हि ते नित्यशंकिताः कणकीट
६. संघाटक व्यवस्था कादिग्रहणे प्रवर्त्तन्ते । एवं भिक्षरप्येषणादोषशंक्येव भिक्षादौ प्रवर्तते। (उशावृ प ४५६,४५७)
एकाणियस्स दोसा इत्थी साणे तहेव पडिणीए ।
भिक्खविसोहि महव्वय तम्हा सबितिज्जए गमणं ॥ कापोतीवृत्ति का अर्थ है-कबूतर की तरह आजी
(ओनि ४१२) विका का निर्वहन करना। जिस प्रकार कपोत धान्य
भिक्षा आदि के लिए दो मुनियों को एक साथ जाना कण आदि को चुगते समय नित्य सशंक रहता है, उसी
चाहिए अन्यथा अकेले मुनि के अनेक कठिनाइयां हो प्रकार भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनि एषणा आदि दोषों के
सकती हैं। जैसे - स्त्रीजनित उपसर्ग, पशुजनित उपसर्ग, प्रति सशंक होता है।
प्रत्यनीकजनित उपसर्ग, भिक्षा की अविशोधि, महाव्रतों जथा कवोता व कविजला य
का उपघात आदि। गावो चरती इध पागडाओ।
गारविए काहीए माइल्ले अलस लुद्ध निद्धम्मे । एवं मुणी गोयरियं चरेज्जा,
दुल्लभअत्ताहिठिय अमणुन्ने वा असंघाडो ।। नो हीलए नो विय संथवेज्जा ।।
(ओनि ४१३) (आव २ पृ७४)
भिक्षा के लिए अकेला मुनि कौन जाता है - कपोत, कपिजल और गाय की तरह मुनि गोचरी/
जिसे लब्धि का गर्व है। भिक्षाचरी करे। भिक्षा न मिलने पर किसी की अवहेलना न करे। भिक्षा मिलने पर किसी की प्रशंसा न
जो गृहस्थ के घर में धर्मकथा करता है (उसके करे।
साथ कोई जाना नहीं चाहता)।
जो मायावी, आलसी और रसलोलुप है। ४. उञ्छवृत्ति
जो अनेषणीय वस्तु-ग्रहण की इच्छा करता है। अन्नायउंछं चरई विसुद्धं, जवणट्ठया समुयाणं च निच्चं ।
जो दुर्भिक्ष में भिक्षा की दुर्लभता को जानता अलद्धयं नो परिदेवएज्जा, लडुं न विकत्थयई स पुज्जो॥
(द ९।३४)
आत्मल ब्धिक-जो स्वयं द्वारा आनीत आहार करने जो जीवनयापन के लिए विशुद्ध सामुदायिक
वाला है। अज्ञातउंछ (भिक्षा) की सदा चर्या करता है, जो भिक्षा
अमनोज्ञ-जो चिड़चिड़े स्वभाव वाला है। न मिलने पर खिन्न नहीं होता, मिलने पर श्लाघा नहीं
७. भिक्षागमन : विधि-निषेध 'करता, वह पूज्य है।
से गामे वा नगरे वा, गोयरग्गगओ मूणी। उग्गमुप्पायणेसणासुद्धं अण्णायमण्णातेण समुप्पादितं
चरे मंदमणुव्विगो, अव्वक्खित्तेण चेयसा ।। भावूछमण्णाउंछं।
(दअचू पृ २४२)
पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे । उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित जो .
वज्जतो बीयहरियाई, पाणे य दगमट्रियं ।। भैक्ष्य उपलब्ध हो, वह 'अज्ञातउंछ' है । .
(द ५।१।२,३)
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