________________
- गोचरचर्या
२४८
गोचरचर्या
आरंभ-संक्लिष्ट परिणामों से प्राणव्यपरोपण में गध्रपृष्ठ-मरण का एक भेद। (द्र. मरण) समर्थ मन्त्र का जाप वाचिक आरम्भ है। संरंभ, गहिलिगसिद्ध-गृहस्थ के वेश में मुक्त होने वाले। समारंभ और आरंभ में प्रवर्त्तमान वचन का निवर्तन
(द्र. सिद्ध) करना वचनगुप्ति है।
के ग्रीवास्थानीय देवलोक। वचनगुप्ति के परिणाम
(द्र. देव) __ वइगुत्तयाएं णं निम्वियारं जणयइ। निव्वियारेणं गोचरचर्या-वह भिक्षाविधि, जिसमें नाना घरों जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगज्झाणगुत्ते यावि भवइ ।
से थोड़ा-थोड़ा आहार लिया जाता
(उ२९।५५) वाग् गुप्तता (कुशल वचन के प्रयोग) से जीव निविचार भाव को प्राप्त होता है। निविचार जीव १. गोचरचर्या सर्वथा वाग्-गुप्त और अध्यात्म योग के साधन-चित्त * गोचरान के प्रकार (द्र. भिक्षाचर्या) की एकाग्रता आदि से युक्त हो जाता है ।
२. माधुकरी वृत्ति कायराप्ति का स्वरूप
३. कापोती वृत्ति ठाणे णिसीयणे चेव, तहेव य तुयट्टणे ।
४. उञ्छवृत्ति उल्लंघणपल्लंघणे, इंदियाण य जुजणे ॥
५. सामुदानिक भिक्षा संरंभसमारंभे, आरंभम्मि तहेव य ।
६. संघाटक व्यवस्था कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेज्ज जयं जई ।।
७. भिक्षागमन : विधि-निषेध (उ २४।२४,२५)
८. भिक्षाचर्या से उपाधय में प्रवेश-विधि मुनि ठहरने, बैठने, लेटने, उल्लंघन-प्रलंघन करने
९. द्रव्य-विवेक और इन्द्रियों के व्यापार में--संरंभ, समारंभ और
* सचित्त द्रव्य-ग्रहण : अनाचार (द्र. अनाचार) आरंभ में प्रवर्तमान काया का निवर्तन करे।
१०. क्षेत्र-विवेक संरम्भः-अभिघातो यष्टिमुष्ट्या दिसंस्थानमेव
११. काल-विवेक सङ्कल्पसूचकमुपचारात्सङ्कल्पशब्दवाच्यं सत् । समारम्भः
.गोचरकाल -परितापकरो मुष्ट याद्यभिघातः । आरम्भे
१२. भिक्षा संबंधी विवेक प्राणिवधात्मनि कायं प्रवर्त्तमानं निवर्तयेत् ।
१३. बाधा रोकने का निषेध
(उशावृ प ५१९) प्रहार करने की दृष्टि से लाठी, मुष्टि आदि उठाना
* भिक्षाग्रहण के पश्चात् : आहार से पूर्व कायिक संरंभ है। दूसरों के लिए पीडाकारक मुष्टि
(द. आहार)
* सदोष भिक्षा और श्वासोच्छ्वास आदि का अभिघात समारंभ है। प्राणिवध में शरीर की प्रवृत्ति आरम्भ है। इनसे काया का निवर्तन करना
(द्र. कायोत्सर्ग) कायगुप्ति है।
* सामिक को आमन्त्रण (द्र . आहार)
* भिक्षा संबंधी दोष कायगुप्ति के परिणाम
(द्र. एषणा) कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ । संवरेणं कायगुत्ते १.गोचरचर्या पुणो पावासवनिरोहं करेइ। (उ २९।५६)
गोचरान:-अग्रः-प्रधान आधाकर्मादिपरिहारेण कायगुप्तता (कुशल काय के प्रयोग) से जीव संवर
. स चासौ गौरिव चरणम् -उच्चावचकूलेष्वविशेषेण (अशुभ प्रवृत्ति का निरोध) को प्राप्त होता है। संवर केस द्वारा कायिक स्थिरता को प्राप्त करने वाला जीव फिर '
पर्यटनं गोचरः।
(उशावृ प ६०७) पापकर्म के उपादान हेतु (आश्रवों) का निरोध कर देता गोचराग्र का अर्थ है-गाय की तरह उच्चावच
कूलों में निर्दोष भिक्षा के लिए पर्यटन करना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org