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सयोगी केवली गुणस्थान
क्षपकश्रेणी : अकलेवरश्रेणी
कलेवरं — शरीरम् अविद्यमानं कडेवरमेषामकडेवराः सिद्धास्तेषां श्रेणिरिव श्रेणिर्ययोत्तरोत्तरशुभ परिणामप्राप्तिरूपया ते सिद्धिपदमारोहन्ति, क्षपकश्रेणिरित्यर्थः । ( उशावृप ३४१ ) सिद्ध अकलेवर होते हैं । उनकी श्रेणी की तरह जो श्रेणी है, जिससे उत्तरोत्तर शुभ परिणामों की प्राप्ति होती है और अन्त में सिद्धिपद में आरोहण होता है, उसको अकलेवरश्रेणी / क्षपकश्रेणी कहते हैं । क्षपकश्रेणी का अधिकारी
पडिवत्तीए अविरय- देस - पमना - पमत्त - विरयाणं । अन्नयरो पडिवज्जइ सुद्धभाणोवगयचित्तो ॥ ( विभा १३१४) अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत में से कोई भी शुद्ध ध्यानोपगत चित्त वाला जीव क्षपकश्रेणी का आरोहण कर सकता है ।
श्रेणि-आरोहण : बद्धायु-अबद्धायु
बद्धाऊ पडिवन्नो नियमा खीणम्मि सत्तए ठाइ । इरोऽणुवरओ च्चिय सयलं सेढि समाणेइ ॥
( विभा १३२५)
श्रेणि-आरोहण के उपक्रम में जो जीव बद्धायु होता है, वह अनन्तानुबन्धीचतुष्क और दर्शन मोहत्रिक - इन सात प्रकृतियों के क्षीण होने पर नियमतः रुक जाता है । अद्धा यदि प्रकृतिक्षय के इस क्रम से उपरत न हो तो वह सम्पूर्ण क्षपकश्रेणि को प्राप्त करता है ।
बद्धाऊ पडिवन्नो पढमकसायक्खए जइ मरेज्जा । तो मिच्छत्तोदयओ विणिज्ज भुज्जो न खीणम्मि | तम्मि ओ जाइ दिव तप्परिणामो य सत्तए खीणे । उवरयपरिणामो पुण पच्छा नाणामइगइओ || ( विभा १३१६, १३१७ ) क्षपश्रेणि-प्रतिपत्ता बद्धायुष्क जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्क क्षय होने पर यदि मरता है, तब उसके मिथ्यात्व उदय में रहता है, इसलिए वह अनन्तानुबन्धी चतुष्क का संग्रहण पुन: कर लेता है ।
अनन्तानुबन्धचतुष्क के क्षीण होने पर कोई मरता है, उसका परिणाम शुभ होता है तो वह देवलोक में उत्पन्न होता है । यदि परिणामधारा प्रतिपतित हो जाये तो वह मरकर अपनी मति के अनुसार किसी भी गति में उत्पन्न हो सकता है । दर्शनसप्तक के क्षीण होने
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गुणस्थान
पर कोई मरता है तो वह भी देवलोक में उत्पन्न होता है ।
१५. उपशान्तमोह गुणस्थान
उवसंतमोहो नाम जस्स अट्ठावीसतिविहंपि मोहणिज्जकम्ममुवसंतं अणुमेत्तंपि ण वेदेति, सो य देसपडिवातेन सव्वपडिवातेण वा नियमा पडिवतिस्सति । (आवचू २ पृ १३५) उपशान्तमोह गुणस्थान में जीव मोहकर्म की अट्ठावीस प्रकृतियों का सर्वथा उपशम करता है, किञ्चित् मात्र भी वेदन नहीं करता । उपशमश्रेणी में आरोहण करने वाले जीव का निश्चित ही देश प्रतिपात अथवा सर्व प्रतिपात होता है ।
१६. क्षीणमोह गुणस्थान
खीणमोहो नाम जेण निरवसेसमिह कम्मणायकं मोहणिज्जं खवितं, सो य नियमा विसुज्झमाणपरिणामो अंतोतंतरेण केवलनाणी भवति ।
( आवचू २ पृ १३५) क्षीणमोह गुणस्थान में जीव सम्पूर्ण मोहकर्म को नष्ट कर देता है । वह अपने विशुद्ध्यमान परिणाम से नियमतः अन्तर्मुहूर्त के बाद केवलज्ञान प्राप्त करता है ।
१७. सयोगी केवली गुणस्थान
जोगा जस्स अत्थि केवलिस्स सो सजोगिकेवली । तस्स धम्मकथासीसाणुसासणवागरणनिमित्तं वयजोगो, ठाणणिसीदणतयट्टण उव्वत्तणपरियत्तणविहारादिनिमित्तं कायजोगो, मणजोगो य से परकारणं पडुच्च भज्जो । अणुत्तरोववातिदेवेहि अण्णेहिं वा देवमणुएहि मणसा पुच्छितो संतो ताहे तेसि संसयवोच्छेदनिमित्तं मणपायोगाई दव्वाइं गेहिऊण मणत्ताए परिणामेतूणं ताहे तेसि माणसा चैव वागरणं वागरेति । ततो तेसिं अणुत्तरादीणं ते भगवतो मणपोग्गले वियाणितूण संसयवोच्छेदो भवति त्ति । अण्णहा तस्स नत्थि मणेणं पयोयणं । तेणं तस्स सकारणं पडुच्च मणजोगो पडिसेहिज्जति ।
( आवचू २ पृ १३५,१३६) योगी केवली के तीनों योग होते हैं । धर्मकथा करने, शिष्यों पर अनुशासन करने तथा प्रश्न आदि का व्याकरण करने के लिए वाक्योग होता है । खड़े होने, बैठने, सोने, उठने, पार्श्व परिवर्तन करने तथा विहार आदि करने के
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