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गुणस्थान
निमित्त काययोग होता है । मनोयोग की उनमें भजना होती है - उनका मनोयोग दूसरों के लिए प्रवर्तित होता है । जब अनुत्तरोपपातिक देव तथा अन्य देव या मनुष्य अपने मन से उन केवलियों को कोई प्रश्न पूछते हैं तब वे केवल उनके संशय को मिटाने के लिए, प्रश्नों का समाधान देने के लिए मनःप्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर, उनको मन रूप में परिणत करते हैं और मन से ही उन प्रश्नों का उत्तर देते हैं । अनुत्तरोपपातिक आदि देव केवली के मन को जान लेते हैं, तब उनका संशय व्युच्छिन्न हो जाता है। यही केवली के मन का प्रयोजन है, अन्यथा उनका मन से क्या प्रयोजन ? इसलिए उनके मनोयोग का निषेध सकारण किया गया है । १८. अयोगी केवली गुणस्थान
अजोगकेवली नाम सेलेसीं पडिवन्नओ । सो य तीहि जोगेहिं विरहितो जाव कखगघङ इच्चेताई पंचहस्सक्खराई उच्चारिज्जंति एवतियं कालमजोगिकेवली भविता सव्वकम्मविणिमुक्को सिद्धो भवति । ( आवचू २ पृ १३६ ) मन, वचन, काया - इन तीनों योगों का निरोध होते ही अयोगी - शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाती है, उसे अयोगी केवली गुणस्थान कहा जाता है। पांच हृस्व अक्षरों - क ख ग घ ङ का उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने समय तक अयोगी अवस्था रहती है । उसके पश्चात् अयोगी केवली सब कर्मों से मुक्त हो सिद्ध हो जाता है ।
१६. शैलेशी अवस्था : कर्मक्षय
तदसंखेज्जगुणाए गुणसेढीए रइयं पुरा कम्मं । समए समए खवियं कमसो सेलेसिकालेणं ॥
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मणुयगइ - जाइ-तस - बायरं च पज्जत्त सुभयमाएज्जं । अन्नयरवेयणिज्जं नराऽमुच्चं जसोनामं ॥
संभवओ जिणनामं नराणुपुव्वी य चरिमसमयम्मि । सेसा जिणसंता ओ हु चरिमसमयम्मि निट्ठति ॥ ओरालियाहि सव्वा हि चयइ विप्पजहणाहिं जं भणियं । निस्सेसतया न जहा देसच्चाएण सो पुव्वं ॥ तरसोदइयाईया भव्वत्तं च विणिवत्तए समयं । सम्मत्त-नाण- दंसण- सुह सिद्धत्ताइं मोत्तूणं ॥ (विभा ३०८२, ३०८४ - ३०८७) शैलेशी अवस्था में असंख्यात गुणी गुणश्रेणी में रचित
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गुणस्थान और कर्मबन्ध कृतकर्म क्रमशः एक-एक समय में क्षीण होते हैं । केवली शैलेशी अवस्था के चरम समय में बारह प्रकृतियों को क्षीण करता है - मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग नाम, आदेय नाम, सात अथवा असातावेदनीय, मनुष्यायुष्य, उच्चगोत्र, यशः नाम और नरानुपूर्वी । यदि तीर्थंकर हो तो नरानुपूर्वी से पूर्व तीर्थकर नाम कर्म की प्रकृति को क्षीण करता है । इसके पश्चात् तीन शरीर ( औदारिक, तैजस, कार्मण) का त्याग करता है । सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, सुख तथा सिद्धत्व को छोड़कर शेष औदयिक आदि भाव और भव्यत्व युगपत् क्षीण होते हैं ।
२०. गुणस्थान और कर्मबंध
मिथ्यादृष्ट्यादयो मिश्रवज्जिता अप्रमत्तान्ता आयुraseraraप कर्म्मणां बन्धकाः, शेषकाले त्वायुवर्णानां सप्तानाम् । एतेषामेव सप्तकर्मणां मिश्रापूर्व करणानिवृत्तिबादरा अपि बन्धकाः । सूक्ष्मसम्पराया मोहायुजन षण्णां कर्मणाम् । उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनः सातवेदनीयस्यैवकस्य । शैलेशीप्रतिपत्तेरारभ्य पुनर्योगाभावादबन्धकाः । ( नन्दीमवृप ४२ ) पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थान आयुबन्धका में आठ कर्मों का बन्ध होता है ।
आयुबन्ध से व्यतिरिक्त काल में आयुवर्जित सात कर्मों का बन्ध होता है । तीसरे, आठवें और नवें गुणस्थान में भी इन सात कर्मों का बन्ध होता है । दसवें गुणस्थान में छह कर्मों ( आयु- मोह वर्जित) का बन्ध होता है । ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में केवल सातावेदनीय का बन्ध होता है । चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीवों और सिद्धों के कर्मबन्ध नहीं होता क्योंकि वहां योग नहीं है ।
कर्मवन्ध
आठ कर्म
सात कर्म (आयुवर्जित)
छह कर्म (मोह और
आयुवर्जत) एक कर्म (सात वेदनीय)
अबंध
में
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गुणस्थान १,२,४,५,६,७
१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९
१० वां ११,१२,१३ १४वां सिद्ध ।
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