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गुणस्थान
-२४४
क्षपक श्रेणी : कर्मक्षय की प्रक्रिया
बद्घायुष्क कोई जीव उपशमश्रेणी का आरोहण करता है, वह श्रेणि के मध्यवर्ती गुणस्थानों में अथवा उपशांतमोह की अवस्था में यदि काल करता है तो अनुत्तर विमान में पैदा होता है।
अबद्धायुष्क जीव उपशांतमोह गुणस्थान में अन्तमहत रहकर कषाय का उदय होने पर नियमत: श्रेणी के प्रतिलोम क्रम से नीचे लौट आता है।
तम्मि भवे निव्वाणं न लभइ उक्कोसओ व संसारं । पोग्गलपरियट्रद्धं देसोणं कोइ हिण्डेज्जा।
(विभा १३०८) उपशमश्रेणि वाला उस भव में मोक्ष को प्राप्त नहीं होता। वह उत्कृष्टत: अर्धपुद्गलपरावर्तकाल तक संसार में भ्रमण कर सकता है।
सैद्धान्तिकमतेन तस्मिन्नेव भवे क्षपकणि न करोति, तामन्तरेण च न सिध्यति । (विभामवृ पृ ४८९)
सैद्धान्तिक मत के अनुसार उपशमश्रेणि वाला उसी भव में क्षपकश्रेणि नहीं ले सकता और उसके बिना मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता। १४. क्षपकश्रेणी : कर्मक्षय की प्रक्रिया
अण मिच्छ मीस सम्म अट्ठ नपुंसित्थीवेय छक्कं च । पुंवेयं च खवेइ कोहाइए य संजलणे ॥ गइ आणपुव्वी दो दो जाइनामं च जाव चरिंदी। आयावं उज्जोयं, थावरनामं च सहमं च ॥ साहारणमपज्जत्तं निद्दानिदं च पयलपयलं च । थीणं खवेइ ताहे अवसेसं जं च अट्टण्हं ।।
(आवनि १२१-१२३) कर्म प्रकृतियों के क्षय का क्रम इस प्रकार हैअनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क । मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्व मोह । अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान कषाय अष्टक का युगपत् क्षय प्रारंभ। क्षयकालके मध्यम भाग में सोलह अन्य प्रकृतियों का क्षय - १. नरकगति नाम ७. त्रीन्द्रिय जाति नाम २. नरकानुपूर्वी नाम ८ चतुरिन्द्रिय जाति नाम ३. तिथंच गति नाम ९ आतप नाम ४. तिथंचानुपूर्वी नाम १०. उद्योत नाम ५ एकेन्द्रिय जाति नाम ११. स्थावर नाम ६. द्वीन्द्रिय जाति नाम १२. सूक्ष्म नाम
१३. साधारण
१५. प्रचलाप्रचला १४. निद्रानिद्रा
१६. स्त्यानद्धि। अवशिष्ट अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान कषाय अष्टक । नपुंसक वेद। स्त्रीवेद। हास्यषट्क (हास्य, रति, अरति,
भय, शोक, जुगुप्सा)। पुरुषवेद । संज्वलन क्रोध । संज्वलन मान। संज्वलन माया। संज्वलन लोभ । वीसमिऊण नियंठो दोहि समएहि केवले सेसे । पढमे निई पयल नामस्स इमाओ पयडीओ ।। देवगइआणुपुव्वीविउव्विसंघयण पढमवज्जाइ । अन्नयरं संठाण तित्थयराहारनामं च ।। चरमे नाणावरणं पंचविहं दंसणचउवियप्पं । पंचविहमंतरायं खवइत्ता केवली होइ ।।
(आवनि १२४-१२६) जीव छदमस्थकाल (क्षीणमोह गुणस्थान) के दो समय शेष रहने पर निद्रा आदि प्रकृतियों का क्षय करता है। प्रथम समय में क्षय होने वाली प्रकृतियांनिद्रा । प्रचला। देवगति नाम। देवानुपूर्वी नाम । वैक्रिय नाम । संहनन (वज्रऋषभनाराच को छोडकर)। संस्थान नाम। तीर्थंकर नाम । आहारक नाम । दूसरे समय (छद्मस्थ काल के अतिम समय) में
क्षीण होने वाली प्रकृतियांज्ञानावरण पचक। दर्शनावरण चतुष्क। अंतराय पंचक। इन सब प्रकृतियों के क्षीण होने पर केवलज्ञान प्राप्त होता है।
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