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प्रमत्तसंयत गुणस्थान
वह
जिसकी जिनप्रवचन में अत्यल्प रुचि है, सास्वादन सम्यग्दृष्टि है । अथवा उपशम सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर जाने वाले जीव के संक्रमणकाल में सास्वादन सम्यक्त्व होता है । इसका कालमान है - छह आवलिका । यह सम्यक्त्व उस व्यक्ति के समान है, जो वृक्ष से गिर रहा है पर अभी तक भूमि तक नहीं पहुंचा है, अन्तरालवर्ती है । इस सम्यक्त्व वाले प्राणी का गुणस्थान सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहलाता है । ४. सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
सम्मामिच्छादिट्ठी नियमा भवत्यपंचिदियसन्निपज्ज - त्तगसरीरो भवति । पढमं चेव मिच्छद्दिट्ठी होतो पसत्थेसु अज्भवसाणे वट्टमाणो... 'मिच्छत्तादिभावोवचिते मिच्छत्तपोग्गले सुभज्झवसाणपयोगेण तिहा करेति, तं जहा - मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सम्मत्तंति । एत्थ जाहे जीवो मिच्छत्तोदयातो विसुज्झिऊणं सम्मामिच्छत्तोदयं परिणमति, ताहे से जिणवयणे सद्धासद्धदंसणी सम्मामिच्छदिट्ठी अंतोमुहुत्तकालो भवति त्ति । ततो परं सम्मत्तं वा मिच्छत्तं वा परिणमति ।
( आवचू २ पृ १३३, १३४) सम्यग्मिथ्यादृष्टि निश्चित रूप से भवस्थ पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय होता है । वह पहले मिथ्यादृष्टि होता है, फिर शुभ अध्यवसायों के प्रयोग से उपचित मिथ्यात्व - पुदग्लों को तीन भागों में विभक्त करता है - मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक्त्व | जब जीव मिथ्यात्व
पुद्गलों को विशुद्ध कर मिथ्यात्व के उदय को सम्यक् मिथ्यात्व के उदय रूप में परिणत करता है, तब वह जिनवचनों पर श्रद्धा और अश्रद्धा करता है - यह सम्यक्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान है । इसका कालमान है अन्तर्मुहूर्त्त । उसके पश्चात् वह सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्व को प्राप्त करता है ।
येषामेकस्मिन्नपि च वस्तुनि तत्पर्याये वा मतिदौर्बल्यादिना एकान्तेन सम्यक्परिज्ञान मिथ्याज्ञानाभावतो न सम्यक् श्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः ते सम्यग् - मिथ्यादृष्टयः । ( नन्दीम प १०५, १०६ ) जिनमें मतिदौर्बल्य के कारण एक ही वस्तु अथवा उसके पर्याय में एकांत रूप से सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान का अभाव है--न एकांततः सम्यक् श्रद्धा है और न एकान्ततः विप्रतिपत्ति है, वे सम्यग् मिध्यादृष्टि हैं ।
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५. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान अविरतसम्म दिट्ठी निरयतिरियमणुयदेवगतीसु महव्वताणुव्वतविरती न भवति, खओवसमखाइयरोइत - दंसणी भवति ।
( आवचू २ पृ १३४ ) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के अधिकारी नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव- चारों गति के जीव हो सकते
। इस चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव महाव्रत या अणुव्रत को स्वीकार नहीं कर सकते । वे क्षायोपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्व वाले होते हैं ।
६. विरताविरत गुणस्थान
विरताविरतो मणुयपंचेंदियतिरियएसु देशमूलुत्तरगुणपच्चक्खाणी नियमा संनिपंचेंदियपज्जत्तसरीरो भवति । ( आवचू २ पृ १३४ ) विरताविरत गुणस्थान के अधिकारी मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय हैं । ये आंशिक रूप में मूलगुण और उत्तरगुण संबंधी प्रत्याख्यान करते हैं । ये नियमतः संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्त ही होते हैं ।
७. प्रमत्तसंयत गुणस्थान
गुणस्थान
पत्तो दुविहो भवति - कसायपमत्तो जोगपमत्तो य । ( आवचू २ पृ १३४) प्रमत्त के दो प्रकार हैं- कषायप्रमत्त और योग
प्रमत्त ।
कषायप्रमत्त
कसायपत्ती कोहकसायवसट्टो जाव लोभकसायवसट्टो त्ति, एस कसायपमत्तो । ( आवचू २ पृ १३४) लोभ के वशीभूत है,
जो क्रोध, मान, माया और वह कषाय- प्रमत्त है |
योगप्रमत्त
जोग पत्तो मणदुष्पणिहाणेणं पणिहाणं कायदुपणिहाणेणं, तथा इंदियेसु सद्दाणुवाती रूवाणुवाती .....तथा इरियासमितादीसु पंचमुवि असमितो भवति, तहा आहारउवहिवस हिमादीणि उग्गमउप्पादणे सणाहि अणुवउत्तो गेहति । ( आवचू २ पृ १३४)
जिसके मन, वाणी और काया के प्रणिधान दूषित हैं, वह योगप्रमत्त है । वह शब्द, रूप आदि इन्द्रियविषयों में आसक्त होता है, ईर्ष्या आदि पांच समितियों से असमित होता है । वह उद्गम उत्पाद - एषणा से शुद्ध आहार, उपधि और स्थान के ग्रहण में जागरूक नहीं होता ।
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