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गुणस्थान
५. अविरत सम्यग्दृष्टि
* सम्यक्त्व का स्वरूप
६. विरताविरत ( देशविरत )
*
श्रावक के देशविरतं गुणस्थान
७. प्रमत्तसंयत
८. अप्रमत्तसंयत
९. निवृत्तिबादर
१०. अनिवृत्तिबादर
११. सूक्ष्मसम्पराय
*
सूक्ष्मसम्पराय चारित्र
क्षपकश्रेणि: अकलेवर श्रेणि क्षपकश्रेणि के अधिकारी श्रेणि-आरोहण : बद्धायु-अबद्धायु १५. उपशांतमोह गुणस्थान १६. क्षीणमोह गुणस्थान १७. सयोगी केवली गुणस्थान १८. अयोगकेवली गुणस्थान * योगनिरोध की प्रक्रिया १९. शैलेशी अवस्था : कर्मक्षय २०. गुणस्थान और कर्मबंध
( व्र. सम्यक्त्व )
१२. श्रेणि आरोहण कब ?
१३. उपशम श्रेणि: मोह उपशम की प्रक्रिया
उपशमश्रेणि के अधिकारी
उपशमश्रेणि और गति
१४. क्षपकश्रेणि: कर्म क्षय की प्रक्रिया * कर्म के प्रकार
गुणस्थान के चौदह प्रकार हैं१. मिथ्यादृष्टि
२. सास्वादन सम्यग्दृष्टि ३. सम्यग्मध्यादृष्टि ४. अविरत सम्यग्दृष्टि ५. विरताविरत
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( द्र. श्रावक )
१. गुणस्थान के प्रकार
मिच्छादिट्ठी सासायणे य तह सम्म मिच्छदिट्ठी य । अविरयसम्म हिट्टी विरयाविरए पमत्ते य ॥ तत्तो य अप्पमत्तो नियट्टि अनियट्टिबायरे सुहुमे । उवसंतखीणमोहे होइ सजोगी अजोगी य ॥
( आवहावृ २ पृ १०७ )
२. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
मिथ्यादर्शनं मोहकर्मोदय इत्यर्थः । सो तिविधोअभिनिवेसेण मतिमोहेण संपवेण वा । तत्थ उदाहरणानि जथासंख्यं गोट्ठामा हिलो जमाली सावगोत्ति ।
( आवचू २ पृ७९) मोहकर्म का उदय मिथ्यादर्शन ( मिथ्यात्व ) कहलाता
(द्र. चारित्र) है। उसके तीन प्रकार हैं- अभिनिवेश, मतिमोह और संप्लवन । गोष्ठामा हिल, जमालि और श्रावक - ये क्रमशः इनके उदाहरण हैं । मिथ्यादृष्टि प्राणी का गुणस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहलाता है ।
मिच्छादिट्टी दुविहो, तं जहा - अभिग्गहीतमिच्छfat अभिग्गहीतमिच्छदिट्ठी । तत्थ अभिग्गहीतमिच्छ( द्र. कर्म ) दिट्ठी संखआजी वयवुड्ढवसणतावसपाणामनिण्हगबोडियादी । अभिग्गहीतमिच्छदिट्ठी एगिदियबेइं दियतेइंदियचउरिदिय, जेसि च पंचिदियाणं जीवाणं न कत्थइ दंसणे अभिप्पायो । ( आवचू २ पृ १३३) मिथ्यादृष्टि के दो प्रकार हैं१. अभिग्रहिक मिथ्यादृष्टि -सांख्य, आजीवक, वृद्धवास, तापस, निह्नव, बोटिक आदि ।
(प्र. केवली )
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६. प्रमत्तसंयत
७. अप्रमत्तसंयत ८. निवृत्तिबादर ९. अनिवृत्तिबार १०. सूक्ष्मसंपराय
११. उपशांतमोह
१२. क्षीणमोह
सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
१३. सयोगकेवली १४. अयोगकेवली
२. अनाभिग्रहिक मिध्यादृष्टि - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और दर्शन के अभिप्राय से शून्य पंचेन्द्रिय जीव ।
३. सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान
उवसमसम्मत्ताओ चयओ मिच्छं अपावमाणस्स । सासायणसम्मत्तं तयंतरालम्मि छावलियं ॥ ( विभा ५३१ )
सासायणो जस्स ईसि जिणवयणई । अहव जो जीवो उवसमसंमत्ताओ मिच्छत्तं संकामितुकामो | जथा वा कोई पुरसो पुप्फफलसमिद्धाओ महदुमाओ पमाददोसेण पवमाणो जाव धरणितलं न पावति ताव अंतराले वट्टति । एवं जीवोवि संमत्तमूलाओ जिणवयणकल्परुक्खाओ परिवयमाणो मिच्छत्तं संकामितुकामो एत्थ छावलियमेत्ते काले वट्टमाणो सासायणो भवति । अहवा संमत्ते सस्सादो सायणो । ( आवचू २ पृ १३३)
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