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गुणस्थान
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सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान ८. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान
अज्झवसाणदाणेसु वट्टमाणो मोहणिज्जे कंमे खवेति उवअप्पमत्तो दुविहो-कसायअप्पमत्तो जोगअप्पमत्तो य।। समेति वा जाव हासरतिअरतिसोगभयदुगंछाणं उदयतो
(आवच २११३४) छेदो न भवति ताव सो भगवं अणगारो अंतोमहत्तकालं अप्रमत्त के दो प्रकार हैं-कषाय-अप्रमत्त और योग- नियट्टित्ति भवति ।
(आव २ पृ १३५) अप्रमत्त।
जब जीव मोहनीय कर्म का क्षय अथवा उपशम कषाय-अप्रमत्त
करता है तब अप्रमत्तसंयत प्रशस्ततर अध्यवसान स्थानों कषायअप्पमत्तो खीणकसाओ।"कहं तस्स अप्पमत्तत्तं
में वर्तमान होकर मोहनीय कर्म का क्षय करता है अथवा भवति ? कोहोदय निरोहो वा उदयपत्तस्स वा विफली- उपशमन करता है और जब तक हास्य, रति, अरति, करणं।
(आवचू २ पृ१३४)
शोक, भय, जुगुप्सा के उदय का उच्छेद नहीं होता
शाक, भय, जुगुप्सा क उ जिसका कषाय क्षीण है, वह कषाय अप्रमत्त है। तब तक वह अनगार अन्तर्मुहूर्त काल तक निवृत्तिबादर क्रोध के उदय का निरोध अथवा उदयप्राप्त क्रोध का गुणस्थान में होता है। विफलीकरण-यही उसकी अप्रमत्तता है ।
१०. अनिवृत्तिबादर गुणस्थान योग-अप्रमत्त
अनियट्टी नाम जदा जीवो नियट्टिस्स उवरि पसत्थजोगअप्पमत्तो मणवयणकायजोगेहिं तिहिं व गत्तो। तरेसु अज्झवसाणट्ठाणेसु वट्टमाणो हासच्छक्कोदये अहवा अकूसलमण निरोहो कसलमणउदीरणं वा. मणसो वोच्छिण्णे जाव मायाउदयवोच्छेदो न भवति एत्थ वा एगत्तीभावकरणं । एवं वइएवि, एवं काएवि। तहा वट्टमाणो अणगारो अंतोमुत्तकालो अणियट्टियत्ति भवति । इंदिएस सोइंदियविसयपयानिरोहो वा सोइंदियविसयपत्तेस्
(आवचू २ पृ १३५) वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो।
जब जीव बादर कषायों से निवृत्त होकर आगे (आव २ पृ १३४,१३५) प्रशस्ततर अध्यवसायस्थानों में उपयुक्त होता है और मन, वचन और काया-जो इन तीनों योगों से गुप्त हास्यषट्क का उदय व्युच्छिन्न हो जाने पर जब तक है, वह योग-अप्रमत्त है।
माया के उदय का व्यवच्छेद नहीं होता, तब तक उसमें जो अकुशल मन-वचन-काययोग का निरोध वर्तमान अनगार अन्तर्महर्तकाल तक अनिवत्तिबादर (निवर्तन) तथा कुशल मन-वचन-काययोग की उदीरणा गुणस्थान में होता है। (प्रवर्तन) करता है, वह योग-अप्रमत्त है।
११. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान जो मन को एकाग्र करता है, वचन और काया को
सुहमसंपराइयं कम्मं जो बज्झति सो सुहमसंपरागो। स्थिर करता है, वह योग-अप्रमत्त है।
सुहमं नाम थोवं । आउयमोहणिज्जवज्जाओ छ कम्मपगजो इन्द्रियविषयों की सावध प्रवृत्ति से निवर्तन डीओ सिढिलबंधणबद्धाओ अप्पकालट्ठितिकाओ मंदाणुतथा प्राप्त विषयों में रागद्वेष का निग्रह करता है, वह
भावाओ अप्पप्पदेसग्गाओ सुहमसंपरायस्स बझंति । एवं योग-अप्रमत्त है।
थोवं संपराइयकम्मं तस्स बज्झति । सुहुमो रागो वा जस्स अप्रमत्त कौन?
सो सुहमसंपरागो । सो य असंखेज्जसमइओ अंतोमुहुत्तिओ अप्पमत्तसंजता जिणकप्पिया परिहारविसुद्धिया विसुज्झमाणपरिणामो वा पडिपतमाणपरिणामो वा अहालंदिया पडिमापडिवण्णगा य, एते सततोवयोगोव- भवतित्ति ।
(आवचू २ पृ १३५) उत्तत्तणतो अप्पमत्ता।
(नन्दीचू पृ २२) सूक्ष्मसांपरायिक कर्मबंध जिसमें होता है, वह सूक्ष्मजो सतत उपयोगशील जागरूक रहते हैं, वे अप्रमत्त संपराय गुणस्थान है। सूक्ष्म का अर्थ है अल्प । वह हैं। अप्रमत्तसंयत, जिनकल्पिक, परिहारविशद्धिक, यथा- अल्प इसलिए कि आयुष्य और मोहनीय को छोड़कर लंदक और प्रतिमाप्रतिपन्न अनगार अप्रमत्त होते हैं। शेष छह कर्म प्रकृतियों का बंध शिथिल, अल्पकालस्थिति ६. निवृत्तिबादर गुणस्थान ।
वाला, मंद अनुभाव वाला तथा अल्प प्रदेशाग्र वाला नियट्टी- जदा जीवो मोहणिज्जं कम खवेति वा होता है। इस प्रकार उसमें अल्प सांपरायिक कर्मबंध उवसमेति वा तदा अप्पमत्तसंजतस्स अणंतरं पसत्थतरेस होता है।
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