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कुलकर
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केवलज्ञान
कुलकर । अवगाहना | वर्ण | पत्नी
आयु १. विमलवाहन | ९०० धनुष | कनक | चन्द्रयशा | पल्योपम का
दसवां भाग २. चक्षुष्मान् | ८०० | प्रियंगु | चन्द्रकान्ता | असंख्येय पूर्व ३. यशस्वी । ७०० , , | सुरूपा । ४. अभिचन्द्र । ६५० , गौर । प्रतिरूपा | ५. प्रसेनजित् । ६०० ,, प्रियंगु | चक्षुकान्ता ६. मरुदेव । ५५० , कनक | श्रीकान्ता ७. नाभि । ५२५ ,, , | मरुदेवी । संख्येय पूर्व
। काल वंडनीति | गति
अवसर्पिणी | हाकार | सुपर्णकुमार काल के तीसरे अर का पल्योपम
माकार | उदधिकुमार का आठवां भाग शेष रहा तब
धिक्कार द्वीपकुमार
नागकुमार
कृतिकर्म-वंदना की विधि। (द्र. वंदना) १. केवलज्ञान का स्वरूप कृष्ण लेश्या- अप्रशस्त भावधारा तथा उसकी
अह सव्वदव्वपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणंतं । उत्पत्ति में हेतुभूत कृष्ण वर्ण वाले सासयमप्पडिवाई, एगविहं केवलं नाणं ।। पुद्गल । (द्र. लेश्या)
.(नन्दी ३३०१) केवलज्ञान-समस्त द्रव्यों और पर्यायों को साक्षात्
जो सब द्रव्यों, उनके परिणामों, उनकी सत्ता की जानने वाला ज्ञान ।
विज्ञप्ति का कारण तथा अनन्त, शाश्वत, अप्रतिपाति
और एक प्रकार का है, वह केवलज्ञान है। १. केवलज्ञान का स्वरूप
पज्जायओ अणंतं सासयमिठं सदोवओगाओ । २. केवलज्ञान का विषय
अव्वयओऽपडिवाई एगविहं सव्वसुद्धीए ॥ * केवलज्ञान स्वार्थ है
(विभा ८२८) * केवलज्ञान : ज्ञान का एक प्रकार
(द्र. ज्ञान)
पर्याय अनन्त होने से केवलज्ञान अनन्त है। सदा ३. केवलज्ञान के प्रकार
उपयोगयुक्त होने से वह शाश्वत है। इसका व्यय नहीं १. भवस्थ केवलज्ञान २. सिद्ध केवलज्ञान
होता इसलिए अप्रतिपाति है । आवरण की पूर्ण शुद्धि के ४. भवस्थ केवलज्ञान : परिभाषा एवं प्रकार
कारण वह एक प्रकार का है। ५. सिद्ध केवलज्ञान : परिभाषा एवं प्रकार
केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणंतं च । * केवलज्ञान : एक लब्धि । (5. लब्धि)
(विभा ८४) ६. केवलज्ञान-प्राप्ति का हेतु
___ केवलम् -असहायं मत्या दिज्ञाननिरपेक्षम् । शुद्धं वा
केवलम्, आवरणमलकलङ्काङ्करहितम् । ७. केवलज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया
सकलं वा
केवलम, तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः। ८. आवरणक्षय और नय
असाधारणं वा केवलम्, अनन्यसदृशमितिहृदयम् । ज्ञेया* मति-श्रत-ज्ञान और केवलज्ञान में -
नन्तत्वादनन्तं वा केवलम् । साधर्म्य तथा उनके ज्ञेय की सीमा (द्र. श्रुतज्ञान)
(नन्दीहावृ पृ १९) * श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में अन्तर)
० केवलज्ञान मति आदि ज्ञानों से निरपेक्ष है, * मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान में साधर्म्य
इसलिए असहाय है। तथा अंतर
(. मनःपर्यवज्ञान) ० वह निरावरण है, इसलिए शुद्ध है। ९. केवलज्ञान-केवलदर्शन
• अशेष आवरण की क्षीणता के कारण प्रथम क्षण में ही पूर्णरूप में उत्पन्न होता है, इसलिए वह सकल/संपूर्ण है।
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