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कालविज्ञान
स्वाध्याय काल
में उत्तर अथवा पूर्व दिशा की तथा प्रभातकाल में पूर्व वेला प्राप्त है अतः सबको गर्जन आदि के प्रति सावधान दिशा की प्रत्युपेक्षा करता है, तत्पश्चात् दक्षिण आदि हो जाना है। दिशाओं की प्रत्युपेक्षा कर कायोत्सर्ग करता है।
दंडधारी के द्वारा घोषणा कर दिए जाने पर यदि नक्षत्र-अवलोकन
उस घोषणा को बहुत मुनियों ने सुना है, कुछेक ने नहीं जं नेइ जया रत्ति नक्खत्तं तंमि नहचउब्भाए ।
सुना है तो वे कुछेक न सुनने वाले दंड के भागी होते हैं संपत्ते विरमेज्जा सज्झायं पओसकालम्मि ।।
और यदि कुछेक ने घोषणा सुनी है, बहुतों ने नहीं सुनी तम्मेव य नक्खत्ते, गयणच उब्भागसावसेसंमि ।
है तो वह दंडधारी दंड का भागी होता है। वेरत्तियं पि कालं, पडिलेहित्ता मूणी कूज्जा । निसीहिया नमुक्कारं आसज्जावडपडणजोइक्खे ।
(उ २६।१९,२०)
अपमज्जियभीए वा छीए छिन्नेव कालवहो । जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता हो, वह नक्षत्र
(ओनि ६५३) जब आकाश के चतुर्थ भाग में आए (प्रथम प्रहर समाप्त
कालग्राहक के कालग्रहण कर गुरु के पास निषी धिका, हो) तब मुनि प्रदोष-काल (रात्रि के प्रारम्भ) में प्रारब्ध
नमस्कार और ग्रहण विधि का पालन नहीं करने से, किसी स्वाध्याय से विरत हो जाए।
साधु का संघट्टन करने से, पत्थर या स्वयं के गिरने से,
अग्नि का स्पर्श होने पर, प्रमार्जना न करते हुए प्रवेश वही नक्षत्र जब आकाश के चतुर्थ भाग में शेष रहे
करने पर, त्रस्त होने पर, छींक आने पर अथवा बिल्ली, तब वैगत्रिक काल (रात का चतुर्थ प्रहर) आया हुआ
कुत्ते आदि द्वारा मार्ग काटने पर काल का व्याघात जान फिर स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जाए।
होता है। ४. काल के व्याघात
५. स्वाध्याय काल आपुच्छण किइकम्म आवस्सियखलियपडियवाघाओ।
प्रादोषिके काले गृहीते सति सर्व एव साधवः प्रथमइंदिय दिसा य तारा वासमसज्झाइयं चेव ॥
यामं यावत्स्वाध्यायं कुर्वन्ति, द्वौ त्वाद्यौ यामौ वृषभाणां सज्झायमचितंता कणगं दठ्ठण तो नियत्तंति। भवतो गीतार्थानां
भवतो गीतार्थानां । ते हि सूत्रार्थ चिन्तयंतस्तावत्तिष्ठन्ति वेलाए दंडधारी मा बोलं गंडए उवमा ॥
यावत्प्रहरद्वयमतिक्रान्तं भवति, तृतीया च पौरुष्यवतरति। आघोसिए बहहिं सयंमि सेमेसू निवडइ दंडो। ततस्ते चैव कालं गळन्ति अडढरत्तियं उवझायाईण अह तं बहहिं न सुयं दंडिज्जइ गंडओ ताहे ॥ संदिसावेत्ता ततो कालं घेत्तणं आयरियं उद्वेति, वंदणयं
(ओनि ६४१,६४४ ६४५) दाऊण भणन्ति -- सुद्धो कालो। आयरिया भणंति -- गुरु की आज्ञा के बिना जाना, कृतिकर्म न करना, तहत्ति । पच्छा ते वसभा सूयंति, आयरिओवि बितियं आवस्सई आदि का उच्चारण न करना, जाते-जाते ।
उदावेत्ता कालं पडियरावेइ। ताहे एगचित्तो सुत्तत्थं स्खलित होना, गिर जाना, अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों की चिोट जारी
चितेइ जाव वेरत्तियस्स कालस्स बहुदेसकालो, ताहे तइयसंप्राप्ति होना, दिग्मोह होना, ताराओं का टूटना, वर्षा पहरे अतिक्कंते सो कालपडिलेहगो आयरियस्स पडिहोना, अस्वाध्यायिक होना-ये सारे काल के व्याघात हैं।
संदेसावेत्ता वेरत्तियं कालं गेहइ आयरिओवि कालस्स कालवेला के निरूपण के लिए गया हुआ मुनि पडिक्कमित्ता सोवति। ताहे जे सोइयल्लया साहू आसी स्वाध्याय न करता हुआ कालवेला का निरूपण करे।
ते उठेऊण वेरत्तियं सज्झायं करेंति जाव पाभाइयकालकनक (रेखायुक्त ज्योतिपिंड) को देखकर लौट आए।
(ओनिवृ प २०६) कालग्रहण वेला प्राप्त हो जाने पर दंडधारी गुरु को
प्राचीन विधि के अनुसार रात्रि के प्रथम प्रहर में निवेदन करता है तथा अन्यान्य मुनियों को मौन और सावधान रहने के लिए कहता है। जैसे ग्राम-उद्घोषक
सभी मुनि स्वाध्याय करते थे। जब दूसरा प्रहर प्रारंभ प्रयोजन होने पर अवकर पर खड़ा होकर गांव में यह होता, तब अन्यान्य मुनि सो जाते, केवल गीतार्थ और घोषणा करता है-आज प्रातः यह कार्य करना है। वृषभ मुनि स्वाध्याय (सूत्र-अर्थ का चिन्तन) करते । इसी प्रकार यह दंडधारी भी कहता है-अब कालग्रहण- दूसरा प्रहर अतिक्रांत होने पर तीसरे प्रहर के प्रारंभ में
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