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कालग्रहण-विधि
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कालविज्ञान १८. औपमिक काल
२. कालप्रतिलेखक की अर्हता ओवमिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पलिओवमे य
पियधम्मो दढधम्मो संविग्गो चेवऽवज्जभीरू य । सागरोवमे य ।
(अनु ४१८) खेयन्नो य अभीरू कालं पडिलेहए साह ॥
(ओनि ६४७) औपमिक काल के दो प्रकार हैं--पल्योपम और
जो प्रियधर्मा, दृढ़ध र्मा, संवेगप्राप्त, पापभीरू, सागरोपम ।
(द्र. पल्योपम)
गीतार्थ और सत्त्वसम्पन्न है, वह कालप्रतिलेखना के कालविज्ञान- समय को जानने का विज्ञान। योग्य है।
स्वाध्याय आदि के उपयुक्त समय ३. कालग्रहण-विधि का ज्ञान । कालज्ञान के प्राचीन
आवासगं तु काउं जिणोवदिळें गुरूवएसेणं । साधनों में 'दिक-प्रतिलेखन' और तिनिथुई पडिलेहा कालस्स विही इमो तत्थ ।। 'नक्षत्रावलोकन' प्रमुख थे। मुनि निसीहिया नमोक्कारे काउस्सग्गे य पंचमंगलए। स्वाध्याय से पहले काल की प्रति- पुवाउत्ता सव्वे पट्टवणचउक्कनाणत्तं ।। लेखना करते थे। नक्षत्रविद्या में
(ओनि ६३८,६४९) कुशल मुनि इस कार्य के लिए मुनि आवश्यक (प्रतिक्रमण) को सम्पन्न कर तीन नियुक्त होते थे।
स्तुतिपाठ करता है। फिर स्वाध्याय के योग्य काल की
प्रतिलेखना हेतु गुरु के पास जाकर निषद्यापूर्वक वन्दना१. कालप्रतिलेखना
नमस्कार करता है। वह गुरु से अनुज्ञा प्राप्त कर आठ २. कालप्रतिलेखक की अर्हता
उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग को पंच मंगल (नमस्कार ३. कालग्रहण-विधि
महामंत्र) से पूर्ण कर कालग्रहण के लिए जाता है। काल० दिक-प्रतिलेखन
ग्रहण के पश्चात् सभी मुनि स्वाध्याय की प्रस्थापना करते ० नक्षत्र-अवलोकन
हैं। रात्रिकालीन स्वाध्याय के चार भाग हैं--प्रादोषिक, ४. काल के व्याघात
अर्धरात्रिक, वैरात्रिक और प्राभातिक। ५. स्वाध्यायकाल
थोवावसे सियाए संझाए ठाइ उत्तराहुत्तो। * गोचरकाल
(द्र. गोचरचर्या)
चउवीसगदुमपुप्फियपुव्वग एक्केक्कयदिसाए ।। ६. प्रतिलेखना काल
(ओनि ६५०) ० पौरुषी का कालमान
कालप्रतिलेखक मुनि सन्ध्या का थोड़ा भाग अवशिष्ट • पौरुषी का प्रमाणकाल
रहने पर काल-मण्डल में प्रविष्ट हो उत्तरदिशा में मुंह ७. कालकरण
कर कायोत्सर्ग करता है। ८. कालप्रतिलेखना को निष्पत्ति
वह पंच नमस्कार एवं आठ उच्छ्वास के कायोत्सर्ग
के पश्चात एक-एक दिशा में मौनभाव से चविंशतिस्तव, १.कालप्रतिलेखना
दशवैकालिक सूत्र का पहला और दूसरा अध्ययन
इनकी अस्खलित अनुप्रेक्षा करता है। काल:-प्रादोषिकादिस्तस्य प्रत्यूपेक्षणा-आगमविधिना यथावन्निरूपणा ग्रहणं प्रति जागरणरूपा काल
दिक-प्रतिलेखन प्रत्युपेक्षणा।
(उशावृ प ५८३)
पाओसियअड्ढ रत्ते उत्तरदिसि पुव्व पेहए कालं । आगमोक्त विधि के अनुसार स्वाध्याय आदि के काल
वेरत्तियंमि भयणा पुव्वदिसा पच्छिमे काले ।। का ग्रहण-निर्धारण और प्रज्ञापन करना कालप्रतिलेखना/
(ओनि ६६२) कालविज्ञान है।
कालप्रतिलेखक मुनि प्रादोषिक और अर्धरात्रि में सर्वप्रथम उत्तर दिशा की, वैरात्र (रात्रि के तीसरे प्रहर)
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