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काल
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पुद्गलपरावर्त
काल का सबसे सूक्ष्म भाग समय कहलाता है। पुव्वण्हकालो भण्णति । तस्सेव गतिपरिणयस्स ज णहमज्झे आगमप्रतिपादित कमलशतपत्रभेदन और जीर्णशाटिका- दरिसणं सो मज्झण्हकालो भण्णति । तस्सेव गतिपरिणपाटन दृष्टांत से उसे जाना जा सकता है।
यस्स जं पच्चत्थिमेण गमणं सो अवरण्हकालो भन्नइ । सूक्ष्मस्तावत्कालो भवति यस्मात्पलपत्रशतभेदे
(आवच १ पृ ४२) प्रतिपत्रमसंख्येयाः समयाः प्रतिपाद्यन्ते तत: सूक्ष्मः कालः
दिन के तीन विभाग हैं - १. पूर्वाह्न काल २. मध्याह्न तस्मादपि कालात सूक्ष्मतरं क्षेत्रं भवति, यस्मादंगूलमात्रे काल ३. अपराह्न काल । क्षेत्रे-प्रमाणांगुर्लकमात्रे श्रेणिरूपे नमःखण्डे प्रतिप्रदेशं ये तीनों विभाग सूर्य की गति के आधार पर हैं। समयगणनया असंख्येया अवसप्पिण्यस्तीर्थकृद्धिरा- जब सूर्य पूर्व दिशा में दिखाई देता है तब पूर्वाह्न काल ख्याताः ।
(नन्दीमवृ प ९५. ९६) कहलाता है। वही गतिपरिणत सूर्य जब नभ के मध्य में कमल के सौ पत्तों का भेदन करते समय प्रत्येक पत्ते दिखाई देता है, तब मध्याह्न काल कहलाता है। जब के भेदन में असंख्य समय लगते हैं, इससे स्पष्ट है कि उसकी गति पश्चिम की ओर होती है, तब अपराह्न काल काल सूक्ष्म है। काल से भी सूक्ष्मतर है -क्षेत्र। क्योंकि कहलाता है। एक अंगूलप्रमाण मात्र आकाशखण्ड के प्रत्येक प्रदेश पर अवपिणीकाल समय की गणना के आधार पर असंख्य अवसपिणियां
अवसर्पन्ति- प्रतिसमयं कालप्रमाणं जन्तूनां वा वर्तन करती हैं।
शरीरायुःप्रमाणादिकमपेक्ष्य ह्रासमनुभवन्त्यवश्यमित्यवसे जहणामए तुण्णागदारए तरुणे बलवं णिउणसिप्पोवगयादिगुणजुत्ते पडसाडियं वा पट्टसाडियं वा गहाय
सर्पिण्यो दशसागरोपमकोटीकोटिपरिमाणाः । सयराहं हत्थमेत्तं ओसारेज्जा । जम्हा संखेज्जाणं पम्हाणं
(उशावृ प ६५७) समागमेण तंतू णिप्फज्जति । उवरिल्ले य पम्हंमि अणि
जिस कालखण्ड में प्राणियों के शरीर और आयुष्य च्छण्णमि हेद्विल्ले पम्हे ण छिज्जति । अण्णमि काले
के प्रमाण का क्रमशः ह्रास होता है, वह अवसर्पिणी काल उवरिल्ले पम्हे छिज्जति । अण्णं मि काले हेदिल्ले पम्हे हैं। यह काल दस कोटिकोटि सागरोपम प्रमाण होता छिज्जति । अतो सेऽवि समए न भवति । एतेण सुहुमतराए ह। समए पण्णत्ते।
(आव १ पृ ४३, ४४) उत्सपिणी काल एक निपुण, बलवान और तरुण जुलाहा शाटिका में तत्परिमाणानामेव उत्सर्पन्ति-उक्तन्यायतो वद्धिमनसे एक हाथ प्रमाण कपड़ा शीघ्र फाड़ देता है । संख्येय भवन्त्यवश्यमित्युत्सपिण्यः । (उशाव प ६५७) पक्ष्मों से तंतु निष्पन्न होता है। इसलिए प्रथम क्षण में जिस कालखण्ड में शरीर, आयुष्य आदि के परिमाण ऊपर का पक्ष्म छिन्न होने पर ही दूसरे क्षण में नीचे का का क्रमशः विकास होता है, वह उत्सर्पिणी काल है। वह पक्ष्म छिन्न होता है -इतना काल भी समय नहीं है। दस कोटिकोटि सागरोपमप्रमाण होता है। समय इससे भी सूक्ष्मतर है ।
पुद्गलपरावर्त अन्तर्मुहूर्त
सव्वपोग्गला जावतिएण कालेण सरीरफासअशनामुहूर्तो घटिकाद्वयप्रमाणः कालविशेषः तस्याद्धं दीहिं फासेज्जति सो पोग्गलपरियट्टो। (उचू पृ १८९) महर्ताद्धं व्यवहारापेक्षया एतन्मुहार्द्धमित्युच्यते, पर- एक जीव को शरीर, आहार आदि के रूप में सब मार्थतः पुनरन्तर्मुहूर्तमवसेयम् । (नन्दीमवृ प १८५) पुद्गलों का स्पर्श करने में जितना समय लगता है, वह __दो घड़ी प्रमाण काल को मुहूर्त कहते हैं । व्यवहार- एक पुद्गलपरावर्त है। दृष्टि से मुहर्त के अर्धभाग (एक घड़ी) को मुहर्तार्द्ध
अनन्ता उत्सपिण्यवसपिण्यः पूदगलपरावर्तः । कहा जाता है । वास्तव में वह अन्तर्मुहूर्त ही है।
(अनुमवृ प ९१)
अनंत उत्सपिणी और अवसर्पिणी का एक पुद्गलरविणो गइपरिणयस्स णं पुव्वदिसादरिसणं सो परावर्त होता है।
दिवस
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