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कर्मों की स्थिति
- कर्म
प्रदेशोदय के रूप में भोगा जाता है, उनका विपाकोदय बंधने वाली) प्रकृति में संक्रांत होती है। बध्यमान प्रकृति नहीं होता।
पूर्वबद्ध प्रकृति में संक्रांत नहीं होती । जैसे-पूर्वबद्ध २१. कर्म-संक्रमण की प्रक्रिया
असात वेदनीय बध्यमान सात वेदनीय में संक्रांत होता
है किन्तु बध्यमान सात वेदनीय पूर्व बद्ध असात वेदनीय मोत्तूण आउयं खलु दंसणमोहं चरित्तमोहं च ।
में संक्रांत नहीं होता—यह प्रकृति-संक्रमण का नियम ससाण पगइण उत्तरावाहसकमा भज्जा ॥ है। स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के संक्रमण का नियम ' ज्ञानावरणादिमूलप्रकृतीनामन्योन्यं संक्रमः कदापि न इससे भिन्न है । वह वेद्यमान अवस्था में होता है । भवत्येव, उत्तरप्रकृतीनां तु निजनिजमूलप्रकृत्यभिन्नानां
पुब्बगहियं च कम्मं परिणामवसेण मीसयं नेज्जा। परस्परं संक्रमो भवति ।.... भजना चैवं द्रष्टव्या-याः
इयरेयरभावं वा सम्मा-मिच्छाई न उ गहणे ॥ किल ज्ञानावरणपञ्चक-दर्शनावरणनवक-कषायषोडशक
(विभा १९३८) मिथ्यात्व-भय-जुगुप्सा - तैजस - कार्मणवर्णादिचतुष्कागुरु
पूर्वगृहीत सत्तावर्ती कर्म का संक्रमण होता है। यह लघूपधातनिर्माणाऽन्तरायपञ्चकलक्षणाः सप्तचत्वारिंशद्
__ संक्रमण -परिवर्तन परिणामधारा की तीव्रता-मंदता और ध्रुवबन्धिन्य उत्तरप्रकृतयः । तासां निजकमूलप्रकृत्यभिन्ना
शुद्धि-अशुद्धि के आधार पर होता है। जैसे-पूर्वबद्ध नामन्योन्यं संक्रमः सदैव भवति । यथा ज्ञानावरणपञ्च
मिथ्यात्व के पुदगल विशुद्ध परिणामों से शोधित होने पर कान्तर्वतिनि मतिज्ञानावरणे श्रुतज्ञानावरणादीनि, तेष्वपि
सम्यक्त्व में संक्रांत हो जाते हैं। इसी प्रकार अशुद्ध मतिज्ञानावरणं संक्रामतीत्यादि । यास्तु शेषा अध्रुवबन्धि
परिणामों की तीव्रता के कारण सम्यक्त्व के पुद्गल न्यस्तासां निजकमलप्रकृत्यभेदवतिनीनामपि बध्यमानायाम
मिथ्यात्व में संक्रांत हो जाते हैं । बध्यमाना संक्रामति, न त्वबध्यमानायां बध्यमानाः यथा साते बध्यमानेऽसातमबध्यमानं संक्रामति, न त बध्यमान- २२. कमा की स्थिति मबध्यमाने इत्यादि वाच्यमिति । एषः प्रकृतिसंक्रमे उदहीसरिनामाणं, तीसई कोडिकोडिओ। विधिः । शेषस्तु प्रदेशादिसंक्रमविधिः मूलप्रकृत्यभिन्नासु उक्कोसिया ठिई होइ, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ वेद्यमानासु संक्रमः भवति ।
आवरणिज्जाण' दुहं पि, वेयणिज्जे तहेव य । . (विभा १९३९; मवृ पृ ६८६, ६८७) अंतराए य कम्मम्मि, ठिई एसा वियाहिया। कर्म की ज्ञानावरण आदि मूल आठ प्रकृतियों का
(उ ३३।१९,२०) परस्पर संक्रमण कभी भी नहीं होता। सजातीय उत्तर
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण हो सकता है, अनिवार्य -इन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटि-कोटि सागर नियम नहीं है। आयुष्य कर्म की चारों प्रकृतियों का तथा और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त की होती है। दर्शनमोह और चारित्रमोह का परस्पर संक्रमण नहीं
......"वेअणीए बारस मुहत्ता ॥ (विभा ११८८) होता।
वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की है। ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की नौ, कषाय की (वेदनीय कर्म बन्ध के दो प्रकार हैं-साम्परायिक सोलह, मिथ्यात्व की एक, भय की एक, जुगुप्सा की एक और ईपिथिक । साम्परायिक बन्ध सकषायी के होता तेजस की एक, कार्मण की एक, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, है, उसकी जघन्य स्थिति है बारह मुहूर्त । ईपिथिक अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और अंतराय की पांच-..- बन्ध वीतराग के होता है, उसकी जघन्य स्थिति है इन ४७ ध्रुवबन्धिनी उत्तर प्रकृतियों का अपनी सजातीय अन्तर्मुहूर्त (दो समय)।) प्रकृति के साथ संक्रमण होता है। जैसे—मतिज्ञानावरण मोहनीय कर्म का श्रुतज्ञानावरण आदि के साथ, श्रुतज्ञानावरण का मति- उदहीसरिनामाणं, सरिं कोडिकोडिओ। ज्ञानावरण आदि के साथ संक्रमण होता है।
मोहणिज्जस्स उक्कोसा, अन्तोमुहुत्तं जहनिया ॥ शेष अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के संक्रमण का नियम
. (उ ३३१२१) यह है कि पूर्वबद्ध सजातीय प्रकृति बध्यमान (वर्तमान में मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटि-कोटि
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