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कर्म
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कर्मभोग अवश्यंभावी
है। सूची-कलाप से उपमित कर्मबन्ध के तीन प्रकार अनुदित कर्म की निर्जरा नहीं होती, असत् का उदय
नहीं होता, इसलिए प्रदेश कर्म का वेदन होने पर ही १. धागे से बंधे हए सूची-कलाप के समान कर्मों की जीव कर्मों का निर्जरण करता है। बद्ध अवस्था है।
किरियाए कुणइ रोगो मंदं पीलं जहाऽवणिज्जतो । २. लोहपट्ट से बद्ध सूची-समूह के समान बद्धस्पृष्ट किरियामेत्तकयं चिय पएसकम्मं तहा तवसा ।। से अवस्था है।
(विभा १२९९) ३. अग्नि में तपाकर घन से पीटकर सूची-समूह को औषध सेवन के द्वारा अपनीयमान रोग की पीड़ा
एकमेक कर देने के समान है बद्धस्पृष्ट निकाचित मन्द हो जाती है। चिकित्साकाल में जो कुछ क्रियाएं की अवस्था ।
जाती हैं, मात्र उतनी सी पीड़ा होती है। वैसे ही तपस्या १६. उदय से पूर्व कर्म को चार अवस्थाएं
के द्वारा अपनीयमान प्रदेशकर्म से गुणों का विघात नहीं
होता, मात्र तपःक्रिया से थोड़ा कष्ट होता है । जोग्गा बद्धा बझंतया य पत्ता उईरणावलियं ।
नरकगत्यादिकाः कर्म प्रकृतयस्तद्भवसिद्धिकानामपि अह कम्मदव्वराओ चउव्विहा पोग्गला हंति ॥
मुनीनां सत्तायां विद्यन्त एव, न चाननुभूतास्ताः कदा(विभा २९६२)
चिदपि क्षीयन्ते, न च तद्भवसिद्धिको नरकादिजन्मविपा१. योग्य-जो कर्म पूद्गल बंधपरिणाम के अभिमुख केन ताः समनुभवति, किन्तु तपसा प्रदेशरूपतया समनुभूय
ताः क्षपयति ।
(विभामवृ पृ४८७) २. बध्यमान-जिन कर्म पुद्गलों की बंध-क्रिया प्रारंभ उसी भव में सिद्ध गति को प्राप्त करने वाले मनियों हो चुकी है।
के भी नरकगति आदि कर्म प्रकृतियां सत्ता में रहती हैं। ३. बद्ध-जिन कर्म पुद्गलों की बंध-क्रिया सम्पन्न हो उनका अनुभव किए बिना वे कभी क्षीण नहीं होती। ___ चुकी है।
तद्भवसिद्धिक जीव नरक आदि जन्मों के विपाकोदय के ४. उदीरणावलिका प्राप्त--जो कर्मपदगल उदीरणा
- रूप में उनका अनुभव नहीं करता, किन्तु प्रदेशोदय में करण द्वारा उदीरणावलिका को प्राप्त हैं,
उनका अनुभव कर तपस्या से उनको क्षीण कर देता है। लेकिन उदयावलिका को प्राप्त नहीं हुए हैं।
कर्मभोग अवश्यंभावी २०. कर्मभोग की प्रक्रिया
सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं पावाणं च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुट्वि
___कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ।... (उ १३/१०) दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं वेयइत्ता मोक्खो, नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता।
___मनुष्यों का सब सुचीर्ण (सुकृत) सफल होता है। (दचू १/सूत्र १८).
किए हए कर्मों का फल भोगे बिना मोक्ष नहीं होता । दुश्चरित्र और दुष्ट पराक्रम के द्वारा पूर्वकाल में
......."कम्मसच्चा ह पाणिणो। (उ ७/२०) अजित किए हुए पाप-कर्मों को भोग लेने पर अथवा तप
प्राणी कर्म-सत्य होते हैं-अपने किये हुए का फल के द्वारा उनका क्षय कर देने पर ही मोक्ष होता है।
अवश्य पाते हैं। . भणियं च सुए जीवो वेएइ न वाऽणभावकम्मं ति ।
पुण्य-पापलक्षणमुभयमपि सविपाकमविपाकं च मन्तजं पुण पएसकम्म नियमा वेएइ त सव्वं ॥
व्यम्-यथाबद्धं तथैव विपाक.: किञ्चिद् वेद्यते, नाण दियं निज्जीरइ नासंतमुदेइ जं तओऽवस्सं ।
किञ्चित्तु मन्दरसं नीरसं वा कृत्वा प्रदेशोदयेनाविपाक सव्वं पएसकम्मं वेएउं मुच्चए सव्वो॥
वेद्यते ।
(विभामवृ १ पृ ६९०) (विभा १२९५, १२९६) पुण्य कर्म और पापकर्म सविपाकी, अविपाकी-- आगम श्रुत में कहा गया है - जीव अनुभाव कर्म दोनों तरह के होते हैं । कुछ कर्म सविपाकी होते हैंका वेदन करता भी है, नहीं भी करता। प्रदेश कर्म का जिस रूप में बंधे हैं, उसी रूप में भोगे जाते हैं। कुछ वेदन नियमत: होता है।
कर्म अविपाकी होते हैं-जिन्हें मंदरस अथवा नीरस कर
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