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कर्मबंध : सूचीकलाप की उपमा
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कर्म
भिण्णो जहेह कालो तुल्ले वि पहम्मि गइविसेसाओ। कर्म-परमाण बन्ध-काल में आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ सत्थे व गहणकालो मइ-मेहाभेयओ भिन्नो।
सम्बद्ध होते हैं। तह तुल्लम्मि वि कम्मे परिणामाइकिरियाविसेसाओ।
१५. आत्मप्रदेश-कर्मप्रदेश-परिमाण भिण्णोऽणुभवणकालो जेट्रो मझो जहन्नो य॥ (विभा २०५८-२०६०)
.....आउगकम्मपएसग्गणतणंता पएसेहिं ।। फलों का परिपाक दो तरह से होता है। जैसे वक्षस्थ आत्मप्रदेशो हि एकैकस्तत्प्रदेशैरनन्तानन्तैरावेष्टितः आम्रफल समय आने पर ही पकता है, किन्तु गर्त में डाल संवेष्टितः ।
(उनि २२६ शाव प २३७) पलाल से ढक देने पर वह समय से पहले ही पक जाता एक-एक आत्मप्रदेश अनंतानंत कर्मपूदगलों से आवेहै। वैसे ही कर्म का फल अध्यवसान आदि हेतु मिलने ष्टित-परिवेष्टित है। आयुष्य कर्म का प्रदेशपरिमाण पर शीघ्र भोग लिया जाता है। (सौ वर्ष में भोगा जाने अनंतानंत है, जिससे एक-एक आत्मप्रदेश आवेष्टित है। वाला आयुष्य अन्तर्मुहूर्त में भोग लिया जाता है) अन्यथा १६. कर्म अनुभाग का प्रदेश-परिमाण यथाकाल सम्पूर्ण रूप से भोगा जाता है। मार्ग की दूरी तुल्य होने पर भी गति की मन्दता
सिद्धाणणंतभागो य, अणुभागा हवंति उ । और तीव्रता के कारण पथिक भिन्न-भिन्न काल में अपने सव्वेसु वि पएसग्गं, सव्वजीवेसुऽइच्छियं ।। गन्तव्य पर पहुंचते हैं। ग्रन्थ का परिमाण समान होने
(उ ३३/२४) पर भी ग्रहण-अवधारण शक्ति की तरतमता के कारण कर्मों के अनुभाग सिद्ध आत्माओं के अनन्तवें भाग विद्यार्थी भिन्न-भिन्न काल में उस ग्रंथ का पार पाते हैं। जितने होते हैं। सब अनुभागों का प्रदेश परिमाण-- इसी प्रकार बद्ध कर्मों की स्थिति तुल्य होने पर भी परि- रसविभाग का परिमाण सब जीवों से अधिक होता है। णाम, बाह्य निमित्त, क्रिया आदि की भिन्नता के कारण १७. एक समय में गहीत कर्मप्रदेशों का परिमाण कर्मों का अनुभवकाल भिन्न-भिन्न होता है।
सव्वेसिं चेव कम्माणं, पएसग्गमणंतगं । १३. कर्म एक क्षेत्रावगाही
गंठियसत्ताईयं, अंतो सिद्धाण आहियं ।। गिण्हइ तज्जोगं चिय रेणु पुरिसो जहा कयब्भंगो ।
(उ ३३/१७) एगक्खेत्तोगाढं जीवो सव्वप्पएसेहिं ॥
एक समय में गृहीत सब कर्मों का प्रदेशाग्र अनन्त एकक्षेत्रावगाढमेव गलाति, न त स्वावगाढप्रदेशेभ्यो है। वह अभव्य जीवों से अनन्त गुना अधिक और सिद्ध भिन्नप्रदेशावगाढम् । (विभा १९४१; मवृ पृ६८७) आत्माओं
६) आत्माओं के अनन्तवें भाग जितना होता है। ___ जीव कर्म के योग्य कर्मवर्गणा के पुद्गलों को ही १८. कर्मबंध : सचीकलाप की उपमा ग्रहण करता है । वह एक क्षेत्रावगाही पुद्गलों को ग्रहण करता है-अपने आत्मप्रदेशों से अवगाहित क्षेत्र से कम्मप्पवायपूवे बद्धं पुठं निकाइयं कम्म । भिन्न क्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों का ग्रहण नहीं करता । यह जीवपएसेहिं समं सूईकलावोवमाणाओ। ग्रहण सब आत्मप्रदेशों से होता है। जैसे तेल आदि से
अयं च विविधोऽपि बन्धः सूचीकलापोपमानाद् स्निग्ध शरीर पर रजकण चिपकते हैं, वैसे ही राग-द्वेष
भावनीयः, तद्यथा-गुणाऽऽवेष्टितसूचीकलापोपमं बद्धसे संक्लिष्ट आत्मा पर कर्म चिपकते हैं।
मुच्यते, लोहपट्टबद्धसूचीसंघातसदृशं तु बद्धस्पृष्टमित्य१४. सब आत्मप्रदेशों से कर्मबंध
भिधीयते, बद्धस्पृष्टनिकाचितं त्वग्नितप्तघनाहतिक्रोडीसव्वजीवाण कम्मं तु, संगहे छद्दिसागयं ।
कृतसूचीनिचयसंनिभं भावनीयमिति ।। सव्वेसु वि पएसेसु, सव्वं सम्वेण बद्धगं ।।
(विभा २५१३ म प ९३) (उ ३३/१८) कर्म जीव-प्रदेशों के साथ बद्ध , स्पृष्ट और निका। सब जीवों के संग्रह-योग्य पुदगल छहों दिशाओं- चित होते हैं --ऐसा कर्मप्रवाद पूर्व में प्ररूपित है। इस
आत्मा से संलग्न सभी आकाशप्रदेशों में स्थित हैं । वे सब बंध को सूची-कलाप की उपमा से उपमित किया गया
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