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कर्म
आयुष्यबन्ध और आकर्ष
१८३ दर्शनमोहं सप्तभेदं अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमाया- रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और वेद। दूसरी लोभाः सम्यक्त्वं सम्यग्मिथ्यात्वं मिथ्यात्वं ।
गणना के अनुसार वे नौ हैं-हास्य, रति, अरति, भय
(उचू पृ २७८) शोक, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद । दर्शनमोह के सात प्रकार हैं-अनन्तानुबंधी क्रोध, ८. आयुष्य कर्म अनन्तानुबंधी मान, अनन्तानुबंधी माया, अनन्तानुबंधी आयाति-आगच्छति स्वकृतकर्मावाप्तनरकादिलोभ, सम्यक्त्व, सम्यगमिथ्यात्व और मिथ्यात्व ।
कुगतेनिष्क्रमितुमनसोऽप्यात्मनो निगडवत्प्रतिबन्धकताचारित्रमोहनीय
मित्यायुः तदेव कर्म आयुःकर्म । चरित्तमोहणं कम्मं, दुविहं तु वियाहियं ।
(उशा प ६४१) कसायमोहणिज्जत, नोकसायं तहेव य ।।
जैसे बेड़ी से बंधा हुआ आदमी नियत स्थान से
(उ ३३१०) प्रतिबद्ध रहता है, वैसे ही आयुष्य के पुद्गल नरक आदि चारित्रमोहनीय के दो प्रकार हैं-कषायमोहनीय किसी एक गति से प्राणी को प्रतिबद्ध करते हैं। और नोकषायमोहनीय ।
नेरइयतिरिक्खाउ, मणुस्साउ तहेव य । चरितमोहनीयं एकविंशतिभेदं अप्रत्याख्याना
देवाउयं चउत्थं तु, आउकम्मं चउम्विहं ।। क्रोधादयश्चत्वारः प्रत्याख्यानावरणाक्रोधादयश्चत्वारः
(उ ३३।१२) संज्वलनक्रोधादयश्चत्वारः हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सा
आयुष्य कर्म चार प्रकार का है-१. नैरयिक स्त्रीपुंनपुंसकवेदाः।
(उचू पृ २७८)
आयु, २. तिथंच आयु, ३. मनुष्य आयु, ४. देव आयु । चारित्र मोहनीय के इक्कीस प्रकार हैं
आयुष्य का बन्ध कब ? अप्रत्याख्यान चतुष्क-क्रोध, मान, माया, लोभ ।
देवा णारया असंखेज्जवासाउया य छम्माससेसाप्रत्याख्यान चतुष्क-क्रोध, मान, माया, लोभ । उया आउगाणि बंधति, परभविआयुआणि । सेसा संज्वलन चतुष्क-क्रोध, मान, माया, लोभ । तिभागसेसाउया निरुवक्कमा । जे ते सोवक्कमा ते सिया नोकषाय नौ-हास्य, रति, अरति, भय, शोक, तिभागसेसाउआ परभविआयूअं पकरेंति सिय तिभागति
जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और भागावसेसाउआ सिअ तिभागतिभागतिभागसेसाउआ नपुंसकवेद ।
पकरेंति ।
(आवचू १ पृ ३६६) नोकषाय मोहनीय
देव, नारक तथा असंख्येय वर्षजीवी मनुष्य और
तिर्यच वर्तमान जीवन का छह माह आयुष्य शेष रहने नोकषाय:-कषायसहवत्तिनो हास्यादयस्तद्रूपेण
पर अगले जन्म का आयुष्य बांधते हैं। निरुपक्रम आयु यद्वद्यते।
(उशावृ प ६४३)
वाले मनुष्य और तिर्यच वर्तमान भव की भाग आयु जो कषाय के सहवर्ती हैं, मूलभूत कषायों को उत्ते
शेष रहने पर अगले भव का आयुबंध करते हैं । सोपक्रम जित करते हैं, हास्य आदि के रूप में जिनका वेदन
आयु वाले जीव 3 भाग आयु शेष रहने पर अथवा होता है, वे नोकषाय हैं।
उत्तरोत्तर तीसरे भाग का तीसरा भाग (छठा, नौवां, नोकषाय के प्रकार
सत्ताईसवां) शेष रहने पर आयुबंध करते हैं। .."सत्तविहं नवविहं वा कम्मं नोकसायजं ॥ आयुष्यबन्ध और आकर्ष
(उ ३३।११) यत्तु षड्भिः पञ्चभिश्चतुभिर्वा आकर्षेः आगृहीतं सप्तविधं हास्यरत्य रतिभय शोकजुगुप्सा: षड् वेदश्च दलिकं तदपवर्तनाकरणेनोपक्रम्यते इति सोपक्रमम् । सामान्यविवक्षयक एवेति । यदा तु वेदः स्त्रीपुंनपुंसकभेदेन
(उशाव प २३७) त्रिधे ति विवक्ष्यते तदा षडभिस्त्रयो मीलिता नव भवन्ति। आकर्ष का अर्थ है- कर्म पदगलों का ग्रहण । चार.
(उशावृ प ६४३) पांच अथवा छह आकर्षों से आयुष्य के पुद्गलों का एक गणना के अनुसार नोकषाय सात हैं- हास्य, ग्रहण होता है, वह सोपक्रम आयुष्य है। इसमें
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