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कर्म
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नामकर्म
अपवर्तनाकरण के द्वारा आयुष्य का अपवर्तन हो सकता आयुष्य के उपक्रम
अज्झवसाणनिमित्त आहारे वेयणा पराघाए। सप्तभिरष्टभिर्वाऽऽकर्गवामिव मरुषु जलगण्डूष- फासे आणापाणु सत्तविहं झिज्जए आउं ।। ग्रहणरूपैर्यत्पुद्गलोपादानं तदनुभागोऽतिदृढ इत्यपवर्त
(आवनि ७२४) यितुमशक्यतया निरुपक्रममुच्यते। (उशावृ प २३७) आयुष्य क्षीण होने के सात कारण --- जैसे मरुभूमि में गाय जलाशय में बार-बार मुंह
अध्यवसान-राग-स्नेह-भयात्मकविचार । डालकर जल पीती है, एक साथ नहीं पीती वैसे ही
निमित्त-दण्ड, शस्त्र आदि का प्रहार । सात-आठ आकर्षों से आयुष्य के पद्गलों का ग्रहण
आहार-अति अल्प मात्रा में या अधिक मात्रा में होता है, एक साथ नहीं, वह निरुपक्रम आयुष्य है,
भोजन करना। क्योंकि उसका अनुभाग अत्यन्त दृढ़ होता है, उसका
वेदना-आंख, कान आदि की पीड़ा । अपवर्तन संभव नहीं है।
पराघात--गड्ढे आदि में गिरना। सोपक्रम-निरुपक्रम आयुष्य
स्पर्श-सांप आदि से डसा जाना। सोवक्कमो अ निरुवक्कमो अ दुविहोऽणुभावमरणंमि ।.... आनापान-उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध हो
(उनि २२६)
जाना। जं जीवियसंवट्टणमझवसाणाइहेउसंजणियं ।
अन्य कारण सोवक्कमाउयाणं स जीविउवक्कमणकालो ।।
दंडकससत्थरज्जू अग्गी उदगपडण विसं वाला। स जीवितोपक्रमणकालो यथ यूकोपक्रमणकालोऽभि
सीउण्हं अरइ भयं खुहा पिवासा य वाही य । धीयत इत्यर्थः यत् किम् ? इत्याह-यज्जीवितस्य
मुनपुरीसनिरोहे जिण्णाजिण्णे य भोयणे बहुसो। यथाबद्धस्य दीर्घकालवेद्यस्यायुष्कस्य संवर्तनं स्वल्पस्थिति
घंसणघोलणपीलण आउस्स उवक्कमा एए। कत्वापादनम् । केषाम् ? सोपक्रमायुषां जीवानाम् ।
(आवनि ७२५,७२६) निरुपक्रमायुषां निकाचितावस्थस्यैव बद्धत्वादपवर्तना
दण्ड, कश, शस्त्र, रज्जु (फांसी लगाना), अग्नि, योगात् । (विभा २०४५ मवृ पृ ७२१,७२२)
उदकपतन, विष, व्याल (सर्प, दुष्ट गज), शीत, उष्ण, __ आयुष्य (अनुभावमरण) के दो प्रकार हैं -सोपक्रम
__ अरति, भय, क्षुधा, पिपासा, व्याधि, मल-मूत्र का निरोध मरण और निरुपक्रम मरण । सोपक्रम आयुष्य वाले जीव
करने पर, अधिक भोजन करने पर, अजीर्ण होने पर अध्यवसान, भय आदि निमित्त मिलने पर दीर्घकाल तक
तथा घर्षण-घोलन-पीडन से आयुष्य क्षीण होता हैभोगे जाने वाले अपने बद्ध आयुष्य को अल्प काल में
ये आयुष्य के उपक्रम हैं। ही भोग लेते हैं - इसे यथायुष्कउपक्रमकाल कहा जाता
नामकर्म है। निरुपक्रम आयु वाले जीवों का आयूष्य निकाचित रूप में बद्ध होता है, अत: उसका अपवर्तन-हस्वीकरण
गतिजात्यादिभिः प्रकारमियतीति नाम । नहीं होता।
(उचू पृ २७७) के पुण सोवक्कमा निरुवक्कमा ? नेरइया देवा
जा गति, जाति आदि से प्राणी-विशेष को निर्दिष्ट असंबज्जवासाउगा तिरिया मणया य उत्तमपरिसा करता है, वह है नाम कर्म । चरिमसरीर त्ति । सेसा भातया । (आवच १ पृ ३६६) नमयति-गत्यादिविविधभावानुभवनं प्रत्यात्मानं
नैरयिक, देव, असंख्येयवर्षजीवी तिर्यंच और मनुष्य, प्रवणयति चित्रकर इव करितुरगादिभाव प्रति रेखाकृतिउत्तम पुरुष (तिरसठ शलाकापूरुष) तथा चरमशरीरी- मिति नामकर्म।
(उशाव प ६४१) इन सबका आयुष्य निरुपक्रम होता है। इनके अतिरिक्त जैसे चित्रकार हाथी, घोड़े आदि का रेखांकन करता शेष सब जीवों का आयुष्य सोपक्रम और निरुपक्रम- है, वैसे ही जीवों को गति, जाति आदि विविध भावों दोनों प्रकार का हो सकता है।
का अनुभव कराने वाला कर्मविशेष नाम कर्म है।
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