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कर्म
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मोहनीय कर्म
इच्छा जगी। स्त्यानद्धि के उदय से वह रात्रि में बनते हैं, उनका नाम है वेदनीय कर्म । उठा, दिन में जिस घर में मोदक देखे थे, उसी घर
वेयणीयं पि य दुविहं, सायमसायं च आहियं । में पहुंचा, मनइच्छित मोदक खाकर शेष बचे
सायस्स उ बहू भेया, एमेव असायस्स वि ।। मोदकों को पात्र में डाल, उपाश्रय में आकर सो
(उ ३३७) गया । पुनः जगने पर गुरु के पास आलोचन की।
वेदनीय दो प्रकार का है-सात वेदनीय और असात उसे संघ से बहिष्कृत कर दिया गया।
वेदनीय । इन दोनों के अनेक प्रकार हैं। ३. गजदंत - एक दिन एक हाथी ने मुनि को उत्पीडित किया । प्रतिशोध की आग में जलता हुआ वह मुनि रात को उठा । नगरकपाटों को तोड़कर हाथी को मोहयति जानानमपि मद्यपानवद्विचित्तताजननेनेति मार, उसके दांत उखाड़ लाया । उन दांतों को मोहः ।
(उशावृ प ६४१) उपाश्रय द्वार पर रखकर सो गया। प्रातः गुरु के जैसे मदिरापान किए हुए मनुष्य की चेतना विकृत पास अपने दुःस्वप्न की आलोचना की। स्त्याद्धि या मच्छित हो जाती है, वैसे ही जो कर्म पुदगल चेतना के उदय के कारण उसे संघ से बहिष्कृत कर दिया को मूच्छित और विकृत बनाता है, वह मोहकर्म है। गया।
मोहणिज्जं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । ४. फरुसग (कुंभकार) - एक 'कुंभकार मुनि बना ।
(उ ३३८) उससे पूर्व वह मृत्पिडों को कूट-पीट कर घड़े बनाता मोहनीय कर्म दो प्रकार का है--दर्शनमोहनीय था। उस पूर्वाभ्यास की स्मृति हुई। रात को और चारित्रमोहनीय । स्त्यानद्धि निद्रा का उदय होने से उसने कई साधुओं
दर्शनमोहनीय की कपालक्रिया कर दी। उसे भी संघ से विसर्जित कर दिया गया।
सम्मत्तं चेव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य । ५. वटवृक्षशाखा –एक बार एक मुनि ग्रामान्तर से
एयाओ तिन्नि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे ।। भिक्षा लेकर आ रहा था। गर्मी की भयंकरता के
(उ ३३।९) कारण छायाभिलाषी मुनि मार्ग में एक वटवृक्ष के
दर्शनमोहनीयवैविध्यं तथाऽऽह-सम्यग्भावः सम्यनीचे बैठा । उसकी एक शाखा से उसका सिर क्त्वं शुद्धदलिकरूपं यदुदयेऽपि तत्त्वरुचिः स्यात् । मिथ्याटकराया, बड़ा परिताप हुआ। मन क्रोध से प्रज्व- भावः मिथ्यात्वम् -- अशुद्धदलिकरूपं यतस्तत्त्वेऽतत्त्वमलित हो उठा। वह रात को सो रहा था। स्त्यानद्धि तत्त्वेऽपि तत्त्वमिति बुद्धिरुत्पद्यते। सम्यग्मिथ्यात्वमेव निद्रा का उदय हुआ। रात्रि में ही वह उस च-शुद्धाशुद्धदलिकरूपं यत उभयस्वभावत। जन्तीर्भवति । वटशाखा को तोड़कर ले आया और पुनः सो
(उशाव प ६४३) गया। संघ ने उसे लिंग-अपनयन कर विसजित कर दर्शनमोह के तीन प्रकार हैं - दिया।
१. सम्यक्त्वमोह-इसके दलिक (पुद्गल) शुद्ध होते स्त्यानद्धि निद्रा के समय वज्रऋषभनाराच संहनन हैं। इसके उदयकाल में भी तत्त्वरुचि बनी रहती वाले व्यक्ति में वासुदेव के बल से आधा बल जाग जाता
२. मिथ्यात्वमोह-मिथ्याभाव / गलत दृष्टिकोण ६. वेदनीय कर्म
मिथ्यात्व है । यह अशुद्धपुद्गलरूप है । इसका उदय वेद्यते -- सुखदुःखतयाऽनुभूयते लिह्यमानमधुलिप्तासि- होने पर तत्त्व में अतत्त्व और अतत्त्व में तत्त्व की धारावदिति वेदनीयम् ।
(उशावृ प ६४१) बुद्धि उत्पन्न होती है। जैसे मधु से लिपटी तलवार की धार को चाटने से ३. सम्यक्त्व-मिथ्यात्व- इसके पुद्गल शुद्ध-अशुद्धस्वाद भी आता है और जीभ भी कट जाती है, वैसे ही मिश्र-रूप होते हैं। इनके उदय से प्राणी की तत्त्वजो पुदगल सुख और दुःख-दोनों के संवेदन में हेतुभूत रुचि/श्रद्धा सन्दिग्ध अवस्था में रहती है।
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