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यथाप्रवृत्तिकरण: धान्यपत्य का दृष्टांत
२. करण के प्रकार और अधिकारी
करणं अहापवत्तं अपुव्वमनियट्टियमेव भव्वाणं । इयरेसि पढमं चिय भन्नइ ******** *******|| अनादिकालात् कर्म क्षपण प्रवृत्तोऽध्यवसायविशेषो यथाप्रवृत्तकरणम् । अप्राप्तपूर्वं मपूर्वं स्थितिघातरसघाताद्यपूर्वार्थ निर्वर्त कं वा पूर्वम् । निवर्तनशीलं निवर्ति, न निवर्ति अनिवर्ति -- आ सम्यग्दर्शनलाभाद् न निवर्तते ।
( विभा १२०२ ; मवृ पृ ४५८ ) करण के तीन प्रकार हैं१. यथाप्रवृत्तिकरण - अनादि काल से कर्मक्षीण करने प्रवृत्त अध्यवसाय |
२. अपूर्वकरण - जो पहले प्राप्त नहीं हुआ, ऐसा अध्यवसाय । अथवा अपूर्व स्थितिघात और रसघात करने वाला आत्मपरिणाम |
३. अनिवृत्तिकरण - जिस परिणाम की श्रेणी में सम्यक्त्व की अभिमुखता होती है। उसके अनंतर सम्यक्त्व प्राप्त होता है ।
भव्य जीवों के तीनों कारण होते हैं। अभव्य जीवों के केवल यथाप्रवृत्तिकरण होता है ।
जागंठी ता पढमं गंठि समइच्छओ अपुव्वं तु । अनिट्टीकरणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीवे ॥
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अनादिकालादरभ्य यावद् ग्रन्थिस्थानं तावत् प्रथमं यथाप्रवृत्तकरणं भवति । कर्मक्षपणनिबन्धनस्याध्यवसायमात्रस्य सर्वदैव भावात्, अष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदयप्राप्तानां सर्वदेव क्षपणादिति । ग्रन्थि तु समतिक्रामतो भिन्दानस्य पूर्वकरणं भवति, प्राक्तनाद् विशुद्धतराध्यव - सायरूपेण तेनैव ग्रन्थेर्भेदादिति । अनिवर्तिकरणं पुनः सम्यक्त्वं पुरस्कृतमभिमुखं यस्यासौ सम्यक्त्वपुरस्कृतः” तत एव विशुद्धतमाध्यवस । यरूपादनन्तरं सम्यक्त्वलाभात् । ( विभा १२०३ ; मवृ पृ ४५९ ) अनादिकाल से लेकर ग्रन्थिदेशप्राप्ति तक प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण होता है । कर्मक्षय का हेतुभूत यह अध्यवसाय निरंतर रहता ही है। इसी अध्यवसाय के कारण उदय प्राप्त कर्म प्रकृतियों का क्षय होता रहता है । ग्रन्थिभेद के समय अपूर्वकरण होता है । इसी अध्यवसाय से ग्रन्थि का भेदन होता है। जिसके सम्यक्त्व अभिमुख होता है, उस जीव के अनिवृत्तिकरण होता है । इस अध्यवसाय के अनन्तर ही सम्यक्त्व प्राप्तः
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करण
होता है । यथाप्रवृत्ति करण विशुद्ध, अपूर्वकरण विशुद्धतर और अनिवृत्तिकरण विशुद्धतम अध्यवसाय है । ३. तीन करण : चींटी का दृष्टान्त
खिइगमणं पिव पढमं थाणूसरणं व करणमपुव्वं । उप्पयणं पिव तत्तो जीवाणं करणमनिय ॥ ( विभा १२०९ ) चींटी के पृथ्वी पर सहज गमन के समान है - यथाप्रवृत्तिकरण |
उसके स्थाणु आरोहण के समान है - अपूर्वकरण । चींटी के कीलिका - उत्पतन के समान है अनिवृत्तिकरण । ( इस करण में मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर प्रस्थान होता है)
४. यथाप्रवृत्तिकरण: धान्यपत्य का दृष्टांत
जो पल्लेऽतिमहल्ले धण्णं पक्खिवइ थोवथोवयरं । सोहेइ बहुबहुतरं भिज्जइ थोवेण काले || तह कम्मधन्नपल्ले जीवोऽणाभोगओ बहुतरागं । सोहंतो थोक्तरं गिण्हंतो पावए गंठि ॥ ( विभा १२०५, १२०६ )
एक बहुत बड़े धान्य के कोठे में थोड़ा धान्य डाला जाये, अधिक मात्रा में बाहर निकाला जाए तो कालांतर में धान्य समाप्त हो जाता है । इसी प्रकार जीव कर्म रूपी धान्य के कोठे से सहज स्वभाव से बहुत कर्मों का शोधन करता है और थोड़े कर्मों को उसमें डालता है, तब वह ग्रन्थि देश तक पहुंचता है । पल्ले महइमहल्ले कुंभं पक्खिवइ सोहए अस्संजए अविरए बहु बंधए निज्जरे पल्ले महइमल्ले कुंभं सोहए पक्खिवे नाति । जे संजए पत्ते बहु निज्जरे बंधए थोवं ॥ पल्ले महइमहल्ले कुंभं सोहेइ पक्खिवे न किंचि । सं अपत्ते बहुनिज्जरे बंधए न किचि ॥
नालि । थोवं ॥
प्रायोवृत्तिरेषा यत् असंयतस्य बहुतरकर्मण उपचयः, अल्पतरस्य चापचय इति । यदि पुनरित्थमेव सर्वदैव स्यात्, तदोपचितबहुकर्मणां जीवानां कदापि कस्यापि सम्यक्त्वादिलाभो न स्यात् न चैतदस्ति । इह त्रयो भङ्गा द्रष्टव्याः । तद्यथा कस्यचिद् बन्धहेतुनां प्रकर्षात्, पूर्वोपचितकर्मक्षपण हेतु नामपकर्षाच्चोपचयप्रकर्षः । कस्य चित्तु बन्धहेतूनां क्षपणहेतूनां च साम्यादुपचयापचय - साम्यम् । कस्यचित् पुनर्बन्ध हेतूनामपकर्षात् क्षपणहेतुनां
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