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करण
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करण की परिभाषा
देशकथा के चार प्रकार हैं
मोह की वृद्धि हो, वैसी कथा श्रमण को नहीं करनी १. देशच्छंद कथा-विभिन्न देशों में प्रचलित विवाह चाहिए। संबंधी रीतिरिवाजों की कथा करना। जैसे-लाट वैराग्य रस से परिपूर्ण, तप और नियम संबंधी कथा देश में मामा की बेटी के साथ और गोल्ल देश में करनी चाहिए, जिसे सुनकर व्यक्ति संवेग और निवेदको बहिन के साथ विवाह सम्मत है। माता की सपत्नी प्राप्त होता है। बुनकरों के लिए विवाह योग्य है, दूसरों के लिए
महान् अर्थ वाली कथा भी यदि अक्लेशकारी हो तो उसका निषेध है।
कहनी चाहिए। २. देशविधि कथा-भोजन विधि, विवाह विधि आदि व्यक्ति, देश, क्षेत्र, काल और अपनी शक्ति को
जानकर निर्दोष प्रासंगिक कथा कहनी चाहिए। की कथा करना। ३. देशविकल्प कथा-परिषद्, गृह, देवकुल, नगर- करण-जीव के परिणाम-विशेष । क्रिया ।
निवेश, ग्राम आदि की कथा करना। ४. देशनेपथ्य कथा-विभिन्न देशों के पहनावे की कथा
१. करण की परिभाषा करना।
२. करण के प्रकार और अधिकारी
३. तीन करण : चींटी का दृष्टांत राजकथा
४. यथाप्रवृत्तिकरण रायकथा चतुविधा-निज्जाणकथा अतिजाण कथा
• धान्यपल्य का दृष्टांत बलकथा कोसकथा। निज्जाणकथा एरिसीरिद्धीए नीति,
•गिरिसरिदद्मावघोलना न्याय अतिजाणकथा - एरिसियाए अतीति, बलकथा-एत्तियं
५. ग्रंथिभेद और सम्यक्त्व प्राप्ति बलं, कोसकथा-एत्तिओ कोसो। (आव २ पृ८१) |
६. प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्ति:तीन अभिमत राजकथा के चार प्रकार हैं
* सम्यक्त्व के प्रकार
(द्र. सम्यक्त्व) १.निर्याणकथा-राजा के निष्क्रमण की कथा करना।
७. ग्रंथि भेद : भव्य-अभव्य २. अतियानकथा-राजा के नगर आदि के प्रवेश की
1 . महाज्वर का दृष्टांत कथा करना।
• चोरों का दृष्टांत ३. बलकथा-राजा की सेना और वाहनों की कथा
८. करण (क्रिया) की परिभाषा __ करना।
९. करण के निक्षेप ४. कोशकथा-राजा के कोश और कोष्ठागार
• नामकरण स्थापनाकरण अनाज के कोठों की कथा करना।
० द्रव्यकरण कथा-विवेक
० क्षेत्रकरण * कालकरण
(द्र. कालविज्ञान) सिंगाररसुग्गुतिया मोहकुवितफुफुगा हसहसें ति।
• भावकरण जं सुणमाणस्स कहं समणेण ण सा कहेयव्वा ।। समणेण कहेतव्वा तव-णियमकहा विरागसंजुत्ता ।
१. करण की परिभाषा जं सोऊण मणुस्सो वच्चइ संवेग-निव्वेगं ॥
................"करणं ति परिणामो॥ अत्थमहंती वि कहा अपरिक्सबहुला कहेतव्वा । हंदि महया चडगरत्तणेण अत्थं कहा हणइ ।।
क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करणं, सर्वत्र जीवपरिणाम देसं खेत्तं कालं सामत्थं घऽप्पणो वियाणेत्ता। एवोच्यते।
(विभा १२०२ मवृ पृ ४५८) समणेण उ अणवज्जा पगयम्मि कहा कहेयव्वा ॥ करण का अर्थ है-जीव के परिणाम ।
(दनि १११-११४) जीव के वे परिणाम, जिनसे कर्म क्षीण होते हैं, जिसे सुनने से शृंगार रस की उत्कट उद्भावना हो, करण कहलाते हैं। .
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