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करण
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प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्ति
च प्रकर्षादपचयप्रकर्षः । तदिह तृतीयभंगे यदाऽसौ मिथ्या- के द्वारा स्वाभाविक रूप से कर्मस्थिति के क्षीण होने पर दष्टिरपि वर्तते तदा ग्रन्थिदेशं प्राप्नोति ।
जीव ग्रन्थि के समीप पहुंचता है । (विभामवृ १ पृ ४६०) ५. ग्रन्थिभेद : सम्यक्त्व प्राप्ति एक बहुत बड़े धान्य के कोठे में बहुत धान्य डाला
अंतिमकोडाकोडीए सव्वकम्माणमाउवज्जाणं । जाता है, थोड़ा धान्य निकाला जाता है। इसी प्रकार
पलियासंखिज्जइमे भागे खीणे भवइ गंठी ।। असंयत अविरत मिथ्यादृष्टि के बहु कर्मबंध होता है,
गंठि त्ति सुदुब्भेओ कक्खडघणरूढगूढगंठि व्व । अल्प निर्जरा होती है।
जीवस्स कम्मजणिओ घणरागहोसपरिणामो॥ एक बहुत बड़े धान्य के कोठे में बहत धान्य
(विभा ११९४, ११९५) निकाला जाता है, थोड़ा धान्य डाला जाता है। इसी जब आयुवजित शेष सात कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रकार प्रमत्तसंयत के बहुत निर्जरा होती है और कर्म- स्थिति क्षीण हो जाती है, मात्र एक-एक सागरोपम बंध अल्प होता है।
कोटि-कोटि की स्थिति शेष रहती है, इसका भी जब एक बहुत बड़े धान्य के कोठे में बहुत धान्य पल्योपम का असंख्यातवां भाग क्षीण हो जाता है, तब निकाला जाता है, नया धान्य नहीं डाला जाता । इसी ग्रन्थिभेदन की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। प्रकार अप्रमत्तसंयत के बहुत निर्जरा होती है, कर्मबंध डाभ आदि की रस्सी में दुर्भद्य ग्रन्थि की तरह नहीं होता।
आत्मा का सघन राग-द्वेष का परिणाम ग्रन्थि कहलाता यह सापेक्ष कथन है-असंयत के बहुत कर्मों का है। ग्रन्थि भिन्न होने पर सम्यक्त्व प्राप्त होता है। उपचय और अल्प कर्मों का अपचय होता है। यदि ऐसा
६. प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्ति : तीन अभिमत निरन्तर होता रहे तो कभी किसी भी बहुलकर्मी जीव को सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होगा । किन्तु ऐसा नहीं है।
अनादिमिथ्यादृष्टि: कोऽपि तथाविधसामग्रीसद्भावेइस संदर्भ में तीन विकल्प द्रष्यव्य हैं
पूर्वकरणेन पुञ्जत्रयं कृत्वा शुद्धपुञ्जपुद्गलान् वेदयन्नौ१. जिस जीव को कर्मबंध के हेतु अधिक और कर्मक्षय
पशमिकं सम्यक्त्वमलब्ध्वव प्रथमत एव क्षायोपशमिक
सम्यग्दृष्टिर्भवति। के हेतु कम प्राप्त होते हैं, उसके कर्मों का उपचय
कार्मग्रन्थिकास्त्विदमेव मन्यन्ते यदुत-सर्वोऽपि अधिक होता है।
अनादिमिथ्यादृष्टि: प्रथमसम्यक्त्वलाभकाले यथाप्रव२. जिस जीव को कर्मबंध और कर्मक्षय के समान हेतु
त्यादिकरण त्रयपूर्वकमन्तरकरणं करोति, तत्र चौपशमिकं प्राप्त होते हैं, उसके कर्मों का उपचय और अपचय
सम्यक्त्वं लभते, पुञ्जत्रयं चाऽसौ विदधात्येव । अत भी समान होता है।
एवौपशमिक सम्यक्त्वाच्च्यूतोऽसौ क्षायोपशमिक३. जिस जीव को बंध के हेतु कम और क्षय के हेतु
सम्यग्दृष्टिः, मिश्रः, मिथ्यादृष्टिर्वा भवति । अधिक प्राप्त होते हैं, उसके कर्मों का अधिक
अन्यस्तु यथाप्रवृत्त्यादिकरणत्रयक्रमेणान्तरकरणे अपचय (बहुनिर्जरा) होता है।
औपशमिकं सम्यक्त्वं लभते, पूजत्रयं त्वसौ न करोत्येव । इस तीसरे विकल्प वाला मिथ्यादृष्टि ग्रन्थिदेश तक
ततश्चौपशमिकसम्यक्त्वाच्च्युतोऽवश्यं मिथ्यात्वमेव पहुंचता है।
गच्छति।
(विभामवृ १ पृ २४२), गिरिसरिग्रावघोलना न्याय
सैद्धांतिक मान्यता अनादिकालीन मिथ्यादष्टि गिरिनइवत्तणिपत्थरघडणोवम्मेण पढमकरणेणं । जीव अनुकूल सामग्री के प्राप्त होने पर औपशमिक जा गंठी कम्मठितिक्खवणमणाभोगओ तस्स ।। सम्यक्त्व को प्राप्त किए बिना ही अपूर्व करण के द्वारा
(विभा १२०७) मिथ्यात्व दलिकों के तीन पुञ्ज करके शुद्ध पुञ्ज पुद्गलों जैसे पहाड़ी नदी के प्रस्तरखण्ड और मार्गवर्ती का वेदन करता हुआ सर्वप्रथम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्रस्तरखण्ड परस्पर घर्षण (घञ्चनघोलनान्याय) से प्राप्त करता है। अनायास ही गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण, छोटे, बड़े आदि कार्मग्रंथिक मान्यता-मिथ्यादष्टि जीव प्रथम बार अनेक आकार वाले हो जाते हैं, वैसे ही यथाप्रवृत्तिकरण सम्यक्त्व प्राप्ति के समय यथाप्रवृत्ति आदि तीनों करणों
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