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दायक
कोई अदेय (सचित्त आदि) वस्तु हो तो उसे अलग निकालकर देय वस्तु देना संहृत दोष है ।
साहट्ट निक्खिवित्ताणं, सच्चित्तं घट्टिया य । तहेव समणट्टाए, उदगं संपणोल्लिया ॥ आगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाणभोयणं । देतियं पडियाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ (द ५।१।३०, ३१) एक बर्तन में से दूसरे बर्तन में निकालकर, सचित्त वस्तु पर रखकर, सचित्त को हिलाकर इसी तरह पात्रस्थ सचित्त जल को हिलाकर जल में अवगाहन कर, आंगन दुले हुए जल को चालित कर श्रमण के लिए आहार पानी लाए तो मुनि उस देती हुई स्त्री को प्रतिषेध करेइस प्रकार का आहर मैं नहीं ले सकता ।
६. दायक
सम्मद्दमाणी पाणाणि, बीयाणि हरियाणि य । असंजमकरि नच्चा, तारिसं परिवज्जए । (द ५।१।२९)
प्राणी, बीज और हरियाली को कुचलती हुई स्त्री असंयमकरी होती है यह जान मुनि उसके पास से भक्त - पान न ले ।
गुव्विणीए नवन्नत्थं विविहं पाणभोयणं । भुज्जमाणं विवज्जेज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए । (द ५।१।३९) गर्भवती स्त्री के लिए बना हुआ विविध प्रकार का भक्तपान वह खा रही हो तो मुनि उसका वर्जन करे, खाने के बाद बचा हो, वह ले ले ।
सिया य समणट्टाए, गुब्विणी कालमासिणी ।
या वा निसीएज्जा, निसन्ना वा पुणुट्ठए | थणगं पिज्जेमाणी, दारगं वा कुमारियं । तं निक्खिवित्तु रोयतं, आहरे पाणभोयणं ॥ (द ५।१/४०, ४२ ) कालमासवती गर्भिणी खड़ी हो और श्रमण को
भिक्षा देने के लिए कदाचित् बैठ जाए अथवा बैठी हो और खड़ी हो जाए तो उसके द्वारा दिया जाने वाला भक्तपान श्रमण के लिए अकल्प्य होता है ।
बालक या बालिका को स्तनपान कराती हुई स्त्री उसे रोते हुए छोड़ भक्तपान लाए तो वह भक्तपान संयति के लिए अकल्पनीय होता है ।
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एवं उस्सक्किया ओसक्किया
उज्जालिया पज्जालिया निव्वाविया । उस्सि चिया निस्सिचिया
एषणासमिति
ओवत्तया ओयारिया दए । (द ५।१।६३)
इसी प्रकार (चूल्हे में) ईंधन डालकर, ( चूल्हे से ) ईंधन निकालकर, (चूल्हे को ) उज्ज्वलित कर ( सुलगा कर), प्रज्वलित कर ( प्रदीप्त कर), बुझाकर, अग्नि पर रखे हुए पात्र में से आहार निकालकर, पानी का छींटा देकर, पात्र को टेढ़ा कर उतार कर दे तो वह भक्तपान संयति के लिए अकल्पनीय होता है ।
अपात्र दायक
बाले बुड्ढे मत्ते उम्मत्ते थेविरे य जरिए य । अंधिल्लए (य) गरिए आरूढे पाउयाहि च ॥ हत्थिदुनिय बद्धे विवज्जिए चेव हत्थपाएहिं । तेरासि गुब्विणी बालवच्छ भुंजंति घुसुलिती ॥ भज्जती य दलंती कंडती चेव तह य पीसंती । पींजती रुचती कत्तंति पमद्दमाणी य ॥ छक्कायवग्गहत्था समणट्टा निक्खिवित्तु ते चेव । ते चेवोगाहंती संघट्टतारभंती य ॥ संसत्तेण य दव्वेण लित्तहत्था य लित्तमत्ता य । उव्वत्तंती साहारणं व दिती य चोरिययं ॥ पाहुडियं च ठवंती सपच्चवाया परं च उद्दिस्स । आभोगमणाभोगेण दलंती वज्जणिज्जा ए ॥
बालादीनां दायकानां मध्ये केषाञ्चिन्मूलत आरभ्य पंचविंशतिसंख्यानां ग्रहणं भजनीयं केषाञ्चित् षट्कायव्यग्रहस्तादीनां पंचदशानां हस्तादग्रहणं भिक्षायाः । (पिनि ५७२-५७७ वृप १५८ ) निम्न चालीस व्यक्तियों के हाथ से भिक्षा लेने का निषेध -
१. बाल
२. अतिवृद्ध
३. उन्मत्त
४. यक्षाविष्ट
५. कम्पमानशरीर
६. ज्वरग्रस्त
७. अन्धा
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