________________
एषणासमिति
ओद्देशिक
में दोषचतुष्क (संयोजना, अप्रमाण, अंगार-धूम और कर्म बांधता हुआ प्रचुर कर्मों का चय-उपचय करता है। कारण) का शोधन करे।
भावावयारमाहेउमप्पगे किंचिनूणचरणग्गो। ३. उद्गम-उत्पादन की परिभाषा
आहाकम्मग्गाही अहो अहो नेइ अप्पाणं ।।
(पिनि १००) सोलस उग्गमदोसे गिहिणो उ समुट्ठिए वियाणाहि ।
आधाकर्म आहार ग्रहण करने वाला उपशांत मोह उप्पायणाए दोसे साहूउ समुट्ठिए जाण ॥
गुणस्थानवर्ती मुनि भी अपने आपको हीन-हीनतर अध्य(पिनि ४०३)
वसायों में ले जाता हुआ नरक में जाता है। सामान्य उद्गम के सोलह दोष गृहस्थ द्वारा समुत्थित हैं।
मुनि की तो बात ही क्या ? उत्पादना के सोलह दोष साधु के द्वारा समुत्थित हैं।
तत्थाणंता उ चरित्तपज्जवा होति संजमद्राण । ४. उद्गमदोष के प्रकार और विवरण
संखाईयाणि उ ताणि कंडगं होइ नायव्वं ।। आहाकम्मुद्दे सिय पूईकम्मे य मीसजाए य ।
संखाईयाणि उ कंडगाणि छद्राणगं विणिहिट्ठं । ठवणा पाहुडियाए पाओअर कीय पामिच्चे ।।
छट्ठाणा उ असंखा संजमसेढी मुणेयव्वा ।। परियट्टिए अभिहडे उब्भिन्ने मालोहडे इय।
किण्हाइया उ लेसा उक्कोसविसुद्धिठिइविसेसाओ। अच्छिज्जे अणिसठे अज्झोयरए य सोलसमे ।।
एएसि विसुद्धाणं अप्पं तग्गाहगो कुणइ ।। (पिनि ९२, ९३)
(पिभा २८-३०) उद्गम के सोलह दोष
चारित्र के पर्यव अनन्त हैं । वे संयम-स्थान कहलाते १. आधाकर्म ९. प्रामित्य
हैं । समुदित असंख्येय संयम-स्थानों की आगमिक संज्ञा २. औद्देशिक १०. परिवर्त
है 'कण्डक' । असंख्येय कंडक षट्स्थानक (छह प्रकार की ३. पूतिकर्म ११. अभिहृत
वृद्धि-हानि वाले) होते हैं। ४. मिश्रजात १२. उ भिन्न
असंख्येय लोकाकाशप्रदेशपरिमाण षट्स्थानक की ५. स्थापना १३. मालापहृत
संज्ञा है-"संयम-श्रेणि। कृष्ण, नील आदि छह लेश्याएं ६. प्राभृतिका १४. आच्छेद्य
हैं । सर्वोत्कृष्ट सातवेदनीय आदि विशुद्ध कर्म प्रकृतियों ७. प्रादुष्करण १५. अनिसृष्ट
की विशुद्ध स्थिति 'स्थिति विशेष' कहलाती है। ८. क्रीत १६. अध्यवतरक
इन संयम-स्थानों आदि से संबंधित शुभ स्थानों में १. आधाकर्म
वर्तमान मुनि आधाकर्मदोषयुक्त आहार ग्रहण कर अपनी
आत्मा को हीन-हीनतर स्थानों में ले जाता है। यह ओरालसरीराणं उद्दवण तिवायणं च जस्सट्ठा ।
भाव-अधःकर्म है। मणमाहित्ता कीरइ, आहाकम्मं तयं बैंति ॥
(पिनि ९७) २. औद्देशिक आधाकर्म का अर्थ है-मन से साधु के निमित्त उद्दिस्स कज्जइ तं उद्देसियं, साधुनिमित्तं आरंभोत्ति पचन-पाचन आदि का संकल्प कर आहार आदि वृत्तं भवति ।
___ (दजिचू पृ १११) निष्पन्न करना।
उद्देशनं साध्वाद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्देशः । आधाकर्म के दुष्परिणाम
(दहाव प ११६) बंधइ अहेभवाऊ पकरेइ अहोमूहाई कम्माई।
उद्देश:-यावथिकादिप्रणिधानं तेन नित्तमौट्टेघणकरणं तिव्वेण उ भावेण चओ उवचओ य ॥ शिकम् ।
(पिनिवृ प ३५) (पिनि १०१) औद्देशिक के दो अर्थ हैंआधाकर्म आहार ग्रहण करने वाला मुनि अधोगति १. निर्ग्रन्थ को दान देने के उद्देश्य से आरंभ-समारंभ का आयुष्य बांधता है। वह कटु फल वाली अन्य कर्म- कर बनाया गया आहार आदि । प्रकृतियां तथा तीव्र अशुभ परिणामों से निकाचित २. परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ आदि सभी को दान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org