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स्थापना
देने के उद्देश्य से बनाया गया भोजन, वस्तु अथवा मकान आदि ।
वहणं तसथावराण होइ, पुढवितणकट्ठनिस्सियाणं । तम्हा उद्देसिय
भुंजे ॥ (द १०१४)
मुनि औद्दे शिक भोजन न करे, क्योंकि भोजन बनाने में पृथ्वी, तृण और काष्ठ के आश्रय में रहे हुए त्रस - स्थावर जीवों का वध होता है ।
३. पूतिकर्म
न
समणकडाहाकम्मं समणाणं जं आहार उवहि वसही सव्वं
तं
कडेण मीसं तु । पूइयं होइ || (पिनि २६९ )
जो आहार आदि श्रमण के लिए बनाया जाए, वह आधाकर्म कहलाता है । उस आधाकर्म से मिश्रित जो आहार आदि होते हैं, वे पूतिकर्मयुक्त कहलाते हैं । पढमदिवसंमि कम्मं तिन्नि उ दिवसाणि पूइयं होइ । पूईसु तिसु न कप्पर कप्पर तइओ जया कप्पो ॥
( पिनि २६८ )
जिस घर में जिस दिन आधाकर्म आहार बने उस दिन और उसके बाद तीन दिन तक उस घर का आहार पूर्ति - दोष युक्त होता है। इसलिए तीन दिन तक मुनि उस घर से भिक्षा नहीं ले सकता ।
४. मिश्रजात
मीसज्जायं जावंतियं च पासंडिसाहुमीसं च । सहसंतरं न कप्पइ कप्पइ कप्पे कए तिगुणे ॥ अत्तट्ठा रंधते पासंडीणपि बिइयओ भणइ । निग्गंथट्ठा तइओ अत्तट्ठाएऽवि रंधते ॥ ( पिनि २७१ ) गृहस्थ अपने लिए भोजन पकाए, उसके साथ-साथ साधु के लिए भी पका ले, वह 'मिश्रजात' दोष है । उसके तीन प्रकार हैं
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१. यावदर्थिक मिश्र - भिक्षाचर और कुटुम्ब के लिए एक साथ पकाया जाने वाला भोजन 'यावदर्थिक' कहलाता है ।
२. पाखण्डिमिश्र – पाखण्डी और अपने लिए एक साथ पकाया जाने वाला भोजन 'पाखण्ड-मिश्र' कहलाता है ।
३. साधु - मिश्र - जो भोजन केवल साधु और अपने लिए
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एषणासमिति
एक साथ पकाया जाए, वह 'साधु मिश्र' कहलाता
है ।
मिश्रजात आहार हजार व्यक्तियों से अंतरित होने पर भी ग्राह्य नहीं है । जिस पात्र में मिश्रजात आहार ले लिया हो तो उसे विसर्जित कर पात्र का तीन बार प्रक्षालन करने से शुद्धि होती है ।
विसघाइय पिसियासी मरइ तमन्नोवि खाइउं मरइ । इय पारंपरमरणे अणुमरइ सहस्ससो जाव ॥ एवं मीसज्जायं चरणप्पं हणइ साहु सुविसुद्धं । तम्हा तं नो कप्पइ पुरिससह संतरगयंपि ॥ (पिनि २७४, २७५) एक व्यक्तिवेधक विष खाकर मरता है, उस मृत व्यक्ति के मांस को खाने वाला दूसरा व्यक्ति भी मर जाता है । दूसरे मृत व्यक्ति के मांस को खाने वाला तीसरा व्यक्ति भी मर जाता है। यह क्रम हजार व्यक्तियों तक चलता है । जैसे वेधक विष का प्रभाव हजारवें व्यक्ति को भी मार देता है, वैसे ही मिश्रजात आहार सहस्र पुरुषान्तर होने पर भी शुद्ध नहीं होता और उसको भोगने वाले श्रमण के चारित्र का हनन कर देता है ।
५. स्थापना
ठवणा भिक्खायरियाण ठविया उ ।
(आवहावू २ पृ ५७ ) भिक्षाचरों के लिए स्थापित की हुई भिक्षा लेना स्थापना दोष है ।
साधुभ्यो देयमितिबुद्ध्या देयवस्तुनः कियन्तं कालं व्यवस्थापनं स्थापना । (पिनिवृप ३५ ) यह वस्तु अमुक साधु के लिए है-इस बुद्धि से देय को कुछ समय के लिए स्थापित करना स्थापना
वस्तु दोष है ।
६. प्राभृतिका
कस्मैचिदिष्टाय पूज्याय वा बहुमानपुरस्सरीकारेण यदभीष्टं वस्तु दीयते तत्प्राभृतमुच्यते । ततः प्राभृतमिव प्राभूतं साधुभ्यो भिक्षादिकं देयं वस्तु । ( पिनिवृ प ३५ )
प्राभृत का अर्थ है - अपने इष्ट अथवा पूजनीय व्यक्तिको बहुमानपूर्वक अभीष्ट वस्तु देना । साधु को उपहारस्वरूप विशिष्ट वस्तु देना प्राभृतिका है ।
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