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इन्द्रिय
जो मनोज्ञ रसों में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है । जैसे मांस खाने में गृद्ध बना हुआ रागातुर मत्स्य कांटे से बींधा जाता
है ।
फासेसु जो गिद्धमुवेइ तिव्वं,
रागाउरे सीयजलावसन्ने,
अकालिय पावर से विणासं ।
गाहग्गहीए महिसेव रणे ॥
( उ ३२|७६)
करता है, वह
।
जो मनोज्ञ स्पर्शो में तीव्र आसक्ति अकाल में विनाश को प्राप्त होता है के द्वारा पकड़ा हुआ अरण्य - जलाशय के स्पर्श में मग्न बना रागातुर भैंसा ।
जस्स पुण दुप्पणिहिताणि, इंदियाइं तवं चरंतस्स । सो हीरति असहीणेहि, सारही वा तुरंगेहि ॥ (दनि २०० ) तप का आचरण करने पर भी जिसकी इन्द्रियां असमाहित हैं, वह साधक उन अस्वाधीन इन्द्रियों के द्वारा वैसे ही अपहृत होता है, जैसे उच्छृंखल घोड़ों के द्वारा सारथि ।
जैसे घड़ियाल शीतल जल के
१६. इन्द्रिय - निग्रह के परिणाम
सोइंद्रियनिग्गणं मणुष्णामणुष्णेसु सद्देसु रागदोसनिग्ग जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।
दिग्गिणं मणामणुण्णेसु रूवेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।
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घाणिदियनिग्गहेणं मणुण्णामणुण्णेसु गंधेसु रागदोस - निग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।
दिग्गिणं मणुण्णामणुण्णेसु रसेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ ।
फासिंदियनिग्गणं मणुण्णामणुण्णेसु फासेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । (उ२९/६३-६७ ) श्रोत्रेन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । वह शब्द सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म - बन्धन नहीं करता और पूर्व बद्ध तन्निमित्तक कर्म
ईषत्प्राग्भारा
को क्षीण करता है ।
चक्षु इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूपों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । वह रूप सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्मबन्धन नहीं करता और पूर्वबद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है ।
घ्राण-इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्धों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता । वह गन्ध सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्मबन्धन नहीं करता और पूर्वबद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है ।
जिह्वा - इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । वह रस सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्मबन्धन नहीं करता और पूर्वबद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है ।
स्पर्श - इन्द्रिय के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्शो में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । वह स्पर्श सम्बन्धी राग-द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्मबन्धन नहीं करता और पूर्वबद्ध तन्निमित्तक कर्म को क्षीण करता है ।
इन्द्रिय पर्याप्ति - इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग करने वाली पौद्गलिक शक्ति । पर्याप्ति का एक प्रकार । (द्र. पर्याप्ति)
(द्र. ज्ञान )
इन्द्रिय प्रत्यक्ष - ज्ञान का एक भेद । ईर्ष्या समिति - शरीर प्रमाण भूमि यतनापूर्वक चलना। एक प्रकार । ईषत्प्राग्भारा-आठवीं पृथ्वी । इसका अपर नाम सिद्धशिला है । इसके ऊर्ध्व भाग में सिद्ध जीव अवस्थित हैं । बारसहिं जोयणेहिं सव्वट्टस्सुवरि भवे । ईसीप भारनामा उ पुढवी छत्तसंठिया || पणया लसयसहस्सा, जोयणाणं तु आयया । तावइयं चैव विथिण्णा, तिगुणो तस्सेव परिरओ ॥ अजोयणबाहल्ला, सा मज्झम्मि वियाहिया । परिहायंती चरिमंते, मच्छियपत्ता तणुयरी ॥
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को देखकर समिति का (द्र समिति )
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