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इन्द्रिय आसक्ति के परिणाम
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इन्द्रिय
१४. एकेन्द्रिय में पांचों इन्द्रियों का अस्तित्व प्रकट हो जाते हैं। इससे उसमें घ्राणेन्द्रिय ज्ञान का जं किर बउलाईणं दीसइ सेसेंदिओवलंभो वि ।
स्पष्ट चिन्ह दिखाई देता है। तेणस्थि तदावरणक्खओवसमसंभवो तेसि ।।
रसनेन्द्रिय-अतिशय रूप वाली तरुण स्त्री के मुख पंचेदिउ व्व बउलो नरो ब्व सव्वविसओवलंभाओ। से प्रदत्त स्वच्छ सुस्वादु शराब के कुल्ले का आस्वादन तहवि न भण्णइ पंचेंदिउ ति बझंदियाभावा॥ करने से बकुल वृक्ष पर फूल निकल आते हैं। इससे
(विभा ३०००. ३००१) उसमें रसनेन्द्रिय ज्ञान का स्पष्ट चिन्ह देखा जाता है। बकुल, चम्पक, तिलक, विरहक आदि वक्षों में स्पर्श १५. इन्द्रिय आसक्ति के परिणाम के अतिरिक्त शेष इन्द्रियां भी प्रतीत होती हैं क्योंकि सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, उनमें भी इन्द्रिय-ज्ञानावरण का क्षयोपशम संभव है।
___ अकालियं पावइ से विणासं । सब विषयों को ग्रहण करने के कारण बकूल मनुष्य
रागाउरे हरिणमिगेव मुद्धे, की तरह पंचेंद्रिय है फिर भी बाह्य इन्द्रिय का अभाव
सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चु । होने से उसे पंचेन्द्रिय नहीं कहा जा सकता।
(उ ३२।३७) एकेन्द्रियाणां श्रोत्रादिद्रव्येन्द्रियाभावेऽपि भावेन्द्रिय- जो मनोज्ञ शब्दों में तीव्र आसक्ति करता है, वह ज्ञानं किञ्चिद् दृश्यत एव, वनस्पत्यादिषु स्पष्टतल्लिङ्गो- अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे शब्द में पलम्भात् । तथाहि-कलकण्ठोद्गीर्णमधुरपञ्चमोद्गार- अतृप्त बना हुआ रागातुर मुग्ध हरिण नामक पशु मृत्यु श्रवणात् सद्यः कुसुम-पल्लवादिप्रसवो विरहकवृक्षादिषु को प्राप्त होता है। श्रवणेन्द्रियज्ञानस्य व्यक्त लिङ्गमवलोक्यते। तिलका- रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, दितरुषु पुनः कमनीयकामिनी"लोचनकटाक्षविक्षेपात्
अकालियं पावइ से विणासं: कुसुमाद्याविर्भावश्चक्षुरिन्द्रियज्ञानस्य । चम्पकाद्यंहिपेषु तु रागाउरे से जह वा पयंगे, विविधसुगन्धिगन्धवस्तुनिकुरम्बोन्मिश्रविमलशीतलसलिल
आलोयलोले समुवेइ मच्चुं ॥ सेकात्, तत्प्रकटनं घ्राणेन्द्रियज्ञानस्य । बकुलादिभूरुहेषु
(उ ३२।२४) तु रम्भातिशायिप्रवररूपवरतरुणभामिनीमुखप्रदत्तस्वच्छ- जो मनोज्ञ रूपों में तीव्र आसक्ति करता है, वह सुस्वादुसुरभिवारुणीगण्डूषास्वादनात् तदाविष्करणं रसने
अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे-- न्द्रियज्ञानस्य । ."अशोकादिद्रुमेषु'आभरणभूषितभव्य- प्रकाश-लोलुप पतंगा रूप में आसक्त होकर मृत्यु को भामिनीभुजलताऽवगृहनसुखाद्""झगिति प्रसून-पल्ल- प्राप्त होता है। वादिप्रभवः स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्य स्पष्टं लिङ्गमभिवीक्ष्यते । गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, (विभामवृ १ पृ ५९)
अकालियं पावइ से विणासं। एकेन्द्रिय जीवों में श्रोत्र आदि द्रव्येन्द्रिय के अभाव रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, में भी भावेन्द्रिय का ज्ञान कुछ अंशों में देखा जाता है।
सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥ वनस्पति में इसके स्पष्ट चिन्ह प्राप्त होते हैं, जैसे--
(उ ३२।५०) श्रोत्रेन्द्रिय सुन्दर कण्ठ एवं मधुर पञ्चम स्वर से जो मनोज्ञ गन्ध में तीव्र आसक्ति करता है, वह उद्गीत गीत-श्रवण से विरहक वृक्ष पर पुष्प उग आते अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे -नागहैं। इससे श्रोत्रेन्द्रिय ज्ञान का स्पष्ट चिन्ह परिलक्षित दमनी आदि औषधियों की गन्ध में गुद्ध बिल से निकलता होता है।
हुआ रागातुर सर्प । चक्षुरिन्द्रिय-सुन्दर स्त्री की आंखों के कटाक्ष से रसेसु जो गिद्धिभुवेइ तिव्वं, तिलक वृक्ष पर फूल खिल जाते हैं। इससे चक्षुरिन्द्रिय
अकालियं पावइ से विणासं । ज्ञान का स्पष्ट चिन्ह परिभासित होता है।
रागाउरे बडिसविभिन्नकाए, घ्राणेन्द्रिय --विविध सुगन्धित पदार्थों से मिश्रित
मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे । निर्मल शीतल जल के सिंचन से चम्पक वृक्ष पर फूल
(उ ३२॥६३)
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