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इन्द्रिय
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सभी जीव एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय
८. विषयग्रहण की क्षमता
प्रथम मेघवृष्टि होने पर बहुत दूरी से आने वाली मिट्टी पुढें सुणेइ सई, रूवं पुण पासइ अपु तु ।
आदि की गंध का भी अनुभव होता है। दूर से समागत गंधं रसं च फासं च, बद्धपुठं वियागरे । गन्ध द्रव्यों का कोई न कोई रस भी होता ही है। उन
(नन्दी ५४।४) द्रव्यों को चखने पर रस का ग्रहण होता है। उन्हें चखकर श्रोत्र स्पृष्ट शब्द को सुनता है। चक्ष अस्पृष्ट रूप व्यक्ति कहता है-यह गंध किसी कडवी अथवा तिक्त को देखता है। घ्राण, रसन और स्पर्शन इन्द्रियां गंध, वस्तु की है। यह कड़वाहट या तिक्तता रस का ही धर्म/ रस और स्पर्श को बद्धस्पृष्ट (निकटतम संबंध स्थापित) गुण है। इससे स्पष्ट है कि वस्तु का जिह्वा से सम्पर्क होने पर जानती हैं।
होने पर रस का भी ग्रहण होता है। शिशिर ऋतु तथा स्पृष्ट और बद्ध
दूरस्थ पद्मसरोवर, सरिता, समुद्र आदि से आने वाले पवन पुढें रेणुं व तणुम्मि बद्धमप्पीकयं पएसेहिं। के शीत स्पर्श का भी अनुभव होता है ।
(विभा ३३७) ११. विषय-परिमाण भात्मांगुल से शरीर पर रजकण के स्पर्श की भांति शब्द आदि
नणु भणियमुस्सयंगुलपमाणओ जीवदेहमाणाइ । का जो स्पर्शमात्र होता है, वह स्पष्ट है । आत्मप्रदेशों के
देहपमाणं चिय तं न उ इंदियविसयपरिमाणं ।। साथ गाढतर आश्लेष होना बद्ध कहलाता है।
(विभा ३४१) ६. श्रोत्रेन्द्रिय की पटुता
उत्सेधांगुल प्रमाण से देह का परिमाण मेय होता """छिक्काई चिय गिण्हइ सद्ददव्वाइं जं ताई ॥
है-ऐसा प्रतिपादित हुआ है। यह केवल देह का बहु-सुहुम-भावु गाइं जं पडुयरं च सोत्तविण्णाणं । "
परिमाण है, न कि इन्द्रियों का विषय-परिमाण । इन्द्रियों (विभा ३३७, ३३८)
का विषय-परिमाण आत्मांगूल प्रमाण से मेय होता है। श्रोत्रइन्द्रिय स्पृष्ट शब्द द्रव्यों को ग्रहण करती है। घ्राण आदि इन्द्रियों की अपेक्षा श्रोत्रइन्द्रिय पदतर है। १
मन अप्राप्यकारी इसके विषयभूत शब्द द्रव्य अन्य विषयों की अपेक्षा मात्रा
अप्पत्तकारि नयणं मणो य"" || (विभा ३४०) में प्रभूत, सूक्ष्म तथा भावुक - संवेदनशील हैं।
आंख और मन-ये दो इन्द्रियां अप्राप्यकारी हैं१०. दूरस्थ गंध-रस-स्पर्श का ग्रहण
ये अपने विषयभूत अर्थ का स्पर्श किए बिना ही उसको
जान लेती हैं। ___ ननु मेघगजितादिविषयः शब्दः प्रथमप्रावृषि प्रथममेघवृष्टौ सत्यां मृत्तिकादिगन्धश्च दूरादप्यायातो गृह्य- १३. सभी जीव एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रियमाणः समनुभूयते; रसस्पर्शी तु कथम् ? इति चेत्,
.."एगेण चेव तम्हा उवओगेगिदिओ सव्वो ॥ उच्यते-दूरादागतानां गन्धद्रव्याणां रसोऽपि तावत्
(विभा २९९८) कश्चिद् भवत्येव । स च तेषां जिह्वासंबन्धे सति यथासंभव कदाचित केनचिद गह्यत एव । तथा च वक्तारो।
एक समय में एक इन्द्रिय का ही उपयोग होता है,
इसलिए उपयोग की दृष्टि से सभी जीव एकेन्द्रिय हैं। भवन्ति ---- 'कटु कस्य, तीक्ष्णादेर्वा वस्तुनः संबन्धी अयं गन्धः' इति । यच्चेह कटकत्वं, तीक्ष्णादित्वं चोच्यते, तद् एगेंदियाइभेया पडुच्च सेसेंदियाइं जीवाणं । रसस्यैव धर्मः । ततश्च ज्ञायते-जिह्वासंबन्धे तेषां अहवा पडुच्च लडिदियं पि पंचेंदिया सव्वे ॥ कटुकादिको रसोऽपि गृहीत इति । स्पर्शोऽपि शीतादिर्दूरा
(विभा २९९९) दपि शिशिरपद्मसर:-सरित्-समुद्रादेमध्येनाऽऽयातस्य एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि का भेद निवत्ति, उपकरण वातादेरनुभूयत एवेति । (विभाम१पृ १७४) और लब्धि इन्द्रिय की अपेक्षा से है। अथवा लब्धि इन्द्रिय
श्रोत्र उत्कृष्टत: बारह योजन की दूरी से समागत की अपेक्षा सभी जीव पंचेन्द्रिय हैं। मेघगर्जन आदि शब्द प्रथम प्रावृटकाल में सुन सकता है।
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