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विषयग्रहण की क्षेत्र मर्यादा
इन्द्रिय
श्रोत्र आदि इन्द्रियों की अपने-अपने विषय में जो एतदपि चाभासुर द्रव्यमधिकृत्योच्यते । भासुरंतु प्रवृत्ति होती है, वह उपयोग इन्द्रिय है।
द्रव्यमेकविंशतियोजनलक्षेभ्योऽपि परतः पश्यन्ति । यथा पदीवदिळंतसामत्थतो, जहा चतुसालभवणेगदेस- पुष्करवरद्वीपाधैं मानुषोत्तरनगप्रत्यासन्नतिनः कर्कजालितो पदीवो सव्वं भवणमुज्जोवेति तहा दविदियमेत्त- संक्रान्तौ सूर्यबिम्बम् ।
(नन्दीमवृ पृ १८६) पदेसविसयपडिबोधओ सव्वातप्पदेसोवयोगत्थपरिच्छेययो आंख आत्मांगूल की अपेक्षा से उत्कृष्टत: कुछ अधिक खयोपसमसाफल्लया य भवति । (नन्दीचू पृ १५) एक लाख योजन तक अभास्वर द्रव्य को तथा कुछ अधिक घर के एक कोने में अथवा चतुःशाल में रखा प्रदीप्त
इक्कीस लाख योजन तक भास्वर द्रव्य को देख सकती दीपक पूरे घर को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार द्रव्येन्द्रिय में अवस्थित आत्मप्रदेशों का क्षयोपशम होने
मानूषोत्तर पर्वत के समीप पूष्करार्धद्वीप है। वहां के पर भी उपयोग की दष्टि से सभी आत्मप्रदेशों से विषय
मनुष्य कर्कसंक्रान्ति के समय कुछ अधिक इक्कीस लाख का बोध होता है।
योजन की दूरी पर स्थित सूर्य को देख सकते हैं। लब्धि आदि की प्राप्ति का क्रम
संखेज्जइभागाओ नयणस्स" .... ॥ (विभा ३५०) लाभक्कमे उ लद्धी निव्वत्तवगरण उवओगो य ।" ___ आंख जघन्यतः अंगुल के संख्येय भागवर्ती रूपीद्रव्य
(विभा ३००३) को देखती है। लब्धि इन्द्रिय होने पर ही निर्वृत्ति, उपकरण और बारसहिंतो सोत्तं सेसाई नवहिं जोयणेहितो । उपयोग इन्द्रिय होती है।
गिण्डंति पत्तमत्थं एत्तो परओ न गिण्हंति ॥ ६. इन्द्रिय-विषय : ग्राह्य-ग्राहक भाव
दव्वाण मंदपरिणामयाए परओ न इंदियबलं पि । रूपस्य चक्षुः गृह्णातीति ग्रहणं""। चक्षुषो रूपं अवरमसंखेज्जंगुलभागाओ नयणवज्जाणं ॥ गृह्यत इति ग्रहणं-ग्राह्य" । अनेन रूपचक्षुषो
(विभा ३४८, ३४९) ग्राह्यग्राहकभाव उक्तः । तथा च न ग्राहकं विना ग्राह्यत्वं ।
श्रोत्रेन्द्रिय-कान उत्कृष्टतः बारह योजन की दूरी नापि ग्राह्य बिना ग्राहकत्वमित्यनयोः परस्परम्प- से आने वाले शब्द को सुन सकता है। जघन्यतः अंगुल कार्योपकारकभाव उक्तो भवति । एतेन त्वनयोः रागद्वेष- के असंख्येय भाग से समागत शब्द सुनता है। जनने सहकारिभावः ख्याप्यते । तथा च यथा रूपं राग- घ्राण, रसन, स्पर्शन इन्द्रिय-ये इन्द्रियां उत्कृष्टतः द्वेषकारणं तथा चक्षुरपि ।
(उशाव प ६३०) नौ योजन तक तथा जघन्यतः अंगुल के असंख्येयभागवर्ती ___ आंख रूप का ग्रहण करती है, इसलिए वह ग्रहण- अपने-अपने विषय (गन्ध, रस और स्पर्श द्रव्य) को ग्रहण ग्राहक है। आंख के द्वारा रूप का ग्रहण होता है, कर सकती हैं। इसलिए वह ग्रहण-ग्राह्य है। रूप और आंख का ग्राह्य- इन्द्रियों की जो विषयग्रहण की उत्कृष्ट क्षमता या ग्राहक संबंध है। ग्राहक के बिना ग्राह्य नहीं होता, ग्राह्य मर्यादा बताई गई है, उसका कारण यह है कि इससे के बिना ग्राहक नहीं होता, अत: इनमें परस्पर उपकार्य- अधिक दूरी से आने वाले शब्द आदि द्रव्यों की परिणति उपकारक भाव है। इससे इनका रागद्वेष की उत्पत्ति में (frequency) मन्द हो जाती है, उस मन्द परिणमन सहकारी भाव प्रकट होता है। जैसे रूप राग-द्वेष का (low frequency) को इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर कारण है, वैसे ही आंख भी रागद्वेष का कारण है-यह । सकती। इनका सहकारी भाव है।
इन्द्रिय जघन्य क्षेत्र
उत्कृष्ट क्षेत्र ७. विषयग्रहण की क्षेत्रमर्यादा
श्रोत्र अंगुल का असंख्येय भाग बारह योजन ""नयणस्स विसयपरिमाणं ।
चक्षु अंगुल का संख्येय भाग कुछ अधिक एक लाख आयंगुसेण लक्खं अइरित्तं जोयणाणं तु ।।
योजन लक्खेहिं एक्कवीसाए साइरेगेहिं पुक्खरद्धम्मि । घ्राण अंगुल का असंख्येय भाग नो योजन उदये पेच्छति नरा सूर उक्कोसए दिवसे ।। रसन
(विभा ३४०, ३४५) स्पर्शन
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