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________________ ईषत्प्राग्भारा १४९ उपधान उत्से अज्जुणसुवण्णगमई, सा पुढवी निम्मला सहावेणं । उत्कालिक-आगम का एक विभाग । अकाल और उत्ताणगछत्तगसंठिया य, भणिया जिणवरेहिं॥ अस्वाध्यायी के अतिरिक्त दिन-रात (उ ३६।५७-६०) के सभी भागों में पढ़े जाने वाले सर्वार्थसिद्ध विमान से बारह योजन ऊपर ईषत् आगम। (द्र. अंगबाह्य) प्राग्भारा नामक पृथ्वी है। वह छत्राकार में अवस्थित उत्पावन--आहार-ग्रहण से संबंधित भिक्षादोष । (द्र. एषणा) उसकी लम्बाई और चौड़ाई पैतालीस लाख योजन की है। उसकी परिधि उस (लम्बाई-चौड़ाई) से तिगनी उत्सग समिति-विधिपूर्वक परिष्ठापन करना। समिति का पांचवां प्रकार । मध्यभाग में उसकी मोटाई आठ योजन की है। वह (द्र. समिति) क्रमशः पतली होती-होती अन्तिम भाग में मक्खी के पंख उत्सपिणी-काल चक्र का वह विभाग जिसमें से भी अधिक पतली हो जाती है। पदार्थों की शक्ति में क्रमश: वृद्धि वह श्वेत-स्वर्णमयी, स्वभाव से निर्मल और उत्तान होती है । विकास काल, दुःख से सुख (सीधे) छत्राकार वाली है - ऐसा जिनवर ने कहा है। की ओर अग्रसर होने वाला काल । संखंककुंदसंकासा, पंडुरा निम्मला सुहा । (द्र. काल) सीयाए जोयणे तत्तो, लोयंते उ वियाहिओ।। ---शरीर की ऊंचाई का मापन करने जोयणस्स उ जो तस्स, कोसो उवरिमो भवे । का साधन । यह भगवान महावीर के तस्स कोसस्स छब्भाए, सिद्धाणोगाहणा भवे ।। तत्थ सिद्धा महाभागा, लोयग्गम्मि पइट्ठिया । अंगुल का अर्धभाग होता है । भवप्पवंच उम्मुक्का, सिद्धि वरगइं गया । _(द्र अंगुल) (उ ३६।६१-६३) उद्गम-आहार की निष्पत्ति से संबंधित भिक्षावह शंख, अंक-रत्न और कुन्दपुष्प के समान श्वेत, दोष । (द. एषणा) निर्मल और शुद्ध है। उस सीता नाम की ईषत्-प्राग्भारा उपक्रम-उपोद्घात । इससे श्रोता और पाठक को पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त है। उस ग्रंथ के अभिधान, प्रतिपाद्य, विभाग, योजन के उपरिवर्ती कोस के छठे भाग में सिद्धों प्रकरण आदि की प्रारम्भिक जानकारी की अवगाहना होती है। मिल जाती है । व्याख्या का प्रथम द्वार । भवप्रपंच से उन्मुक्त और सर्वश्रेष्ठ गति (सिद्धि) को (द्र. अनुयोग) प्राप्त होने वाले अनन्त शक्तिशाली सिद्ध वहां लोक के उपधान तपोमय अनष्ठान । अग्रभाग में स्थित होते हैं। उपधानम् -अंगानंगाध्ययनादौ यथायोगमाचाम्लादिईषत्प्राग्भारा पृथ्वी का प्रमाण तपोविशेषः । (उशावृ प ३४७) - अत्थीसीपब्भारोवलक्खियं मणयलोगपरिमाणं । अंग, उपांग आदि के अध्ययन काल में करणीय लोगग्गनभोभागो सिद्धिक्खेत्तं जिणक्खायं ।। आगम में निदिष्ट तपविशेष उपधान कहलाता है। उसमें (विभा ३१६२) आचाम्ल, उपवास आदि तप विहित हैं। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी का परिमाण मनुष्यलोक जितना है । लोकाग्र का नभोभाग सिद्धि क्षेत्र है। ईहा--यह अमुक व्यक्ति या अमुक पदार्थ होना चाहिए, ऐसी वितर्कमूलक वस्तु-धर्म की अवधारणा। (द्र. आभिनिबोधिक ज्ञान) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016048
Book TitleBhikshu Agam Visjay kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalprajna, Siddhpragna
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages804
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size18 MB
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