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आहार
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प्रमाणातिरेक आहार
व्रण फुटे नहीं अथवा विकृत न हो-इस दृष्टि से कारणों से आहार न करता हुआ भी साधु धर्म की उसे घी आदि से चुपड़ा जाता है। इसी प्रकार मुनि आराधना करता है। शरीर को टिकाये रखने के लिए आहार करे, सौन्दर्य
१३. आहार : मांडलिक दोष वृद्धि के लिए नहीं। जत्तासाहणहेउं आहारेंति जवणट्ठया जइणो ।
.."संजोयणा पमाणं च । छायालीसं दोसेहिं सुपरिसुद्धं विगयरागा ।
इंगाल धूम कारण॥ (पिनि १)
(ओनि ५७७) मांडलिक दोष पांच हैं --- संयम-यात्रा के निमित्त, शरीर-संधारण के लिए संयोजना .. स्वादवत्ति से खाद्यपदार्थों को परस्पर मनि अनासक्त भाव से आहार करता है। वह आहार
मिलाकर खाना । उद्गम उत्पादन, एषणा आदि के छयालीस दोषों से
प्रमाणातिरेक-आहार की मात्रा का अतिक्रमण करना। परिशुद्ध होता है।
अंगार-द्रव्य की प्रशंसा करते हुए खाना। नाणाइसंधणट्ठा न बन्नबलरूवविसयट्ठा ।। धूम-द्रव्य की निन्दा करते हुए खाना ।
(ओभा २८०) कारण - बिना कारण आहार करना । ज्ञान-दर्शन-चारित्र के सन्धान/अविच्छिन्नता के
संयोजना लिए आहार करना चाहिए। वर्ण, बल और रूप की
संयोयणाए दोसो जो संजोएइ भत्तपाणं तु। दीप्ति के लिए तथा विषय-सेवन के लिए आहार नहीं
दव्बाई रसहेउं वाघाओ तस्सिमो होई॥ करना चाहिए।
संजोयणा उ भावे संजोएऊण ताणि दव्वाणि । आहारंति तवस्सी विगइंगालं च विगयधमं च । ।
संजोयइ कम्मेणं कम्मेण भवं तओ दुक्खं ।। झाणज्झयणनिमित्तं एसुवएसो पवयणस्स ।। (पिनि ६६०)
(पिनि ६३८,६३९) ध्यान और स्वाध्याय करने के लिए मुनि राग-द्वेष
स्वाद के लिए अनुकूल द्रव्यों की परस्पर संयोजना
कर खाना संयोजना दोष है। द्रव्यों की संयोजना से से उपरत हो आहार करे-यह जिनशासन का उपदेश
आत्मा रसगद्धि के अप्रशस्त भाव से संयोजित होती है।
इस संयोजन से कर्मबंध और कर्मबंध से दु:खद भव१२. आहार न करने के हेतु
परम्परा बढ़ती है। आयंके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु ।
प्रमाणातिरेक आहार पाणिदया तवहेउं सरीरवोच्छेयणटाए।।
पगामं च निगामं च, पणीयं भत्तपाणमाहरे ।
(उ २६।३४) मुनि छह कारणों से आहार न करे
अइबहुयं अइबहुसो, पमाणदोसो मुणेयव्वो ॥ १. आतंक-आकस्मिक बीमारी हो जाने पर।
बत्तीसाइ परेणं पगाम निच्चं तमेव उ निकामं ।
जं पुण गलंतनेहं पणीयमिति तं बुहा वेंति ।। २. राजा आदि का उपसर्ग हो जाने पर। ३. ब्रह्मचर्य की तितिक्षा (सुरक्षा) के लिए ।
बहुयातीयमइबई अइबहुसो तिन्नि तिन्नि व परेणं ।
तं चिय अइप्पमाणं भुंजइ जं वा अतिप्पंतो।। ४. प्राणिदया के लिए।
(पिनि ६४४,६४५,६४७) ५. तपस्या के लिए। ६. शरीर का व्युत्सर्ग करने के लिए।
प्रमाणातिरेक आहार के पांच रूप हैंछहिं कारणेहि साधु आहारितोऽवि आयरइ धम्म। प्रकाम... बत्तीस कवल से अधिक खाना। छहिं चेव कारणे हिं णिज्जूहितोऽवि आयरइ ॥ निकाम---प्रतिदिन अधिक खाना ।
(पिनि ६६१) प्रणीत गरिष्ठ या अतिस्निग्ध आहार करना। छह कारणों से आहार करता हुआ भी तथा छह अतिबहुक अपनी भूख से अधिक खाना ।
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