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सम्भोज-प्रत्याख्यान के परिणाम
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आहार
अतिबहुश:--दिन में अनेक बार या तीन बार से अधिक (अतिथि)-ये मंडली में भोजन नहीं करते । इन्हें खाना।
सर्वप्रथम पर्याप्त आहार परोस दिया जाता है। अइबयं अइबहसो अइप्पमाणेण भोयणं भोत्तुं ।
प्रायश्चित्तवाही, निर्यढ (असांभोजिक) और आत्महाएज्ज व वामिज्ज व मारिज्ज व तं अजीरंतं ।।
लब्धिक भी मंडली में भोजन नहीं करते ।
(पिनि ६४६) १५. मंडली भोजन का प्रयोजन अत्यधिक खाने से, तीन बार से अधिक खाने से,
अतरंतबालवुड्ढा सेहाएसा गुरू असहुवग्गो। बार-बार खाने से वह भोजन पचता नहीं है। न पचने
साहारणोग्गहाऽलद्धिकारणा मंडली होइ॥ के कारण अतीसार, वमन आदि रोग तथा मृत्यु तक हो
(ओनि ५५३) सकती है।
ग्लान, बाल, वृद्ध, शैक्ष, अतिथि, गुरु, राजपुत्र, अंगार और धूम
अलब्धिक आदि-इनके लिए भोजन-मंडली की व्यवस्था
की जाती है, क्योंकि अति ग्लान, बाल और वृद्ध भिक्षा तं होइ सइंगालं जं आहारेइ मूच्छिओ संतो।
लाने में असमर्थ होते हैं। शैक्ष भिक्षाविधि नहीं जानता। तं पुण होइ सधूमं जं आहारेइ निदंतो।।
अतिथि और गुरु सम्मान्य होते हैं, उन्हें भिक्षा के लिए (पिनि ६५५) नहीं भेजा जाता। राजपुत्र आदि मुनियों को सुकुमारता
(पिनि ६५५) रागभाव या आसक्ति से आहार की प्रशंसा करते
के कारण भिक्षा के लिए नहीं भेजा जाता । अलब्धिक
है हए आहार करने वाले का संयम अंगारे की तरह दग्ध
अंतराय कर्म के उदय के कारण जिन्हें सहजतया आहार हो जाता है-यह अंगार दोष है। नीरस-विरस आहार
प्राप्त नहीं होता, वे मंडली में आहार करते हैं। की निन्दा करता हुआ द्वेषभाव से खाने वाला अपने
१६. सम्भोज-प्रत्याख्यान के परिणाम संयम को धूमिल करता है-यह धूम दोष है। सोही चउक्कभावे विगइंगालं च विगयधमं च ।
संभोगपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे कि जणयइ?
संभोगपच्चक्खाणेणं आलंबणाई खवेइ। निरालंबणस्स य आहार करते समय चार प्रकार की शद्धि रखनी आयय ट्ठियाजोगा भवति । सएणं लाभेणं संतुस्सइ, पर. होती है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । भोजन करते लाभं नो आसाएइ नो तक्केइ नो पीहेइ नो पत्थेइ नो समय अंगार, धूम आदि दोषों से मुक्त रहना भावशुद्धि अभिलसइ । परलाभं अणासायमाणे अतक्केमाणे अपीहे
माणे अपत्थेमाणे अणभिलसमाणे दुच्चं सुहसेज्ज उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ।
(उ २९।३४) १४. संभोजी और असंभोजी
भंते ! सम्भोज प्रत्याख्यान से (मंडली-भोजन का दुविहो य होइ साहू मंडलिउवजीवओ य इयरो य। त्याग करने वाला) जीव क्या प्राप्त करता है ? .. मंडलिमुवजीवंतो अच्छइ जा पिडिया सव्वे ।। सम्भोज-प्रत्याख्यान से वह परावलम्बन को छोड़ता आगाढजोगवाही निज्जूढत्तट्ठिआ व पाहुणगा। है। उस परावलम्बन को छोड़ने वाले मुनि के सारे सेहा सपायछित्ता बाला बुड्ढेवमाईया ॥ प्रयत्न मोक्ष की सिद्धि के लिए होते हैं। वह भिक्षा में
(ओनि ५२२,५४८) स्वयं को जो कुछ मिलता है, उसी में संतुष्ट हो जाता साधु के दो प्रकार हैं --
है। दूसरे मुनियों को मिली हुई भिक्षा में आस्वाद नहीं १. मंडली उपजीवी-मंडलीभोजी मुनि भिक्षा लाने के लेता, उसकी ताक नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, बाद तब तक प्रतीक्षा करते हैं, जब तक सब साधु प्रार्थना नहीं करता और अभिलाषा नहीं करता। दूसरे इकट्ठे नहीं हो जाते। इकट्ठे होने पर सब साथ । को मिली हुई भिक्षा में आस्वाद न लेता हुआ, उसकी मिलकर खाते हैं।
ताक न रखता हुआ, स्पृहा न करता हुआ, प्रार्थना न २. अमंडली उपजीवी-आगाढ योगवाही (गणि- करता हुआ और अभिलाषा न करता हुआ वह दूसरी सुख योगस्थ), शैक्ष, बाल, वृद्ध और प्राघूर्णक शय्या को प्राप्त कर विहार करता है ।
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